नियोजन क्या है, परिभाषा, महत्व, सिद्धांत, तत्व, विशेषताएं

नियोजन क्या है

niyojan kya hai; नियोजन प्रबंध का वह कार्य है जिसमें लक्ष्यों का निर्धारण करना तथा उन्हें प्राप्त करने हेतु की जाने वाली विभिन्न क्रियाओं को शामिल किया जाता है। इसके अंतर्गत यह निश्चित किया जाता है कि क्या करना है? कब करना है? कब किया जाना है? तथा किसके द्वारा किया जाना है? इन सभी प्रश्नों के बारे में निर्णय लेना ही नियोजन कहलाता है, जिसे हम अंग्रेजी में Planning कहते हैं।

नियोजन की परिभाषा | niyojan ki paribhasha

बिली ई. गौज के अनुसार — “नियोजन मूल रूप से चुनाव करना है और नियोजन की समस्या उस समय पैदा होती है, जब किसी वैकल्पिक कार्य की जानकारी प्राप्त हुई हो।”

जार्ज आर. टैरी के अनुसार — “नियोजन भविष्य में देखने की एक विधि या तकनीक है। और आवश्यकताओं का एक रचनात्मक पुनर परीक्षण है। जिससे कि वर्तमान क्रियाओं को निर्धारित लक्ष्यों के संबंध में समायोजित किया जा सके।”

नियोजन करते समय उत्पन्न कठिनाइयां

1. खर्चीला कार्य— यह एक न्याय पूर्ण कार्य है क्योंकि इसको बनाने में बहुत समय धन तथा श्रम लगता है जिसके कारण लागत बढ़ जाती है कभी-कभी नियोजन से मिलने वाले लाभ उस पर किए गए व्यय की अपेक्षा बहुत कम होते हैं।

2. भावी घटनाओं की अनिश्चितता— क्योंकि भविष्य अनिश्चित होता है और योजनाएं भविष्य के लिए ही बनाई जाती है अतः योजनाएं पूरी तरह से सटीक हो या कोई जरूरी नहीं होता क्योंकि जो होने वाला है वह तो होता ही है ऐसी दशा में नियोजन क्यों और कैसे किया जाए उसका कोई उचित नहीं है

3. सर्वोत्तम विकल्प के चयन में कठिनाइयां— दिए गए विकल्पों मैं सर्वोत्तम विकल्प कौन सा है यह तय करना कठिन है यह भी संभव है कि जो विकल्प आज सर्वोत्तम है वह कल सर्वोत्तम नहीं रहे अतः नियोजन के कार्य में बाधा ध्यान देने योग्य है।

4. नीरस कार्य— योजना बनाने का कार्य मुख्यतः सोचने तथा कागजी खानापूर्ति से संबंध रखता है जबकि प्रबंध सक्रिय कार्यकर्ता है उसके लिए नियोजन कार्य नीरस प्रकृति का बन जाता है।

5. लोच का अभाव— नियोजन होने के पश्चात व्यवसायिक उपक्रमों को अपने समस्त संसाधनों को पूर्ण निश्चित क्रम से कार्य में लाना पड़ता है इससे प्रबंध में कुछ सीमा तक लोग का अभाव हो जाता है।

प्रबंधन द्वारा नियोजन प्रक्रिया में कौन-कौन से पद उठाए जाते हैं

नियोजन प्रबंध का प्रथम तथा अत्यधिक महत्वपूर्ण कार्य है यह कार्य सभी व्यवसायिक संस्थानों में पूरे किए जाते हैं इस कार्य को पूरा करने की एक प्रक्रिया होती है व्यवसाय संस्थाओं के नियोजन में प्राइस निम्नलिखित कदम निश्चित होते हैं

1. अवसरों की जानकारी प्राप्त करना— योजना को बनाने की जरूरत किसी समस्या को समझाने या किसी अवसर के लाभ उठाने के लिए पढ़ती है एक व्यवसाय को उपलब्ध हो सकने वाले अवसरों की जांच करने के लिए प्रबंधकों को संस्था की ताकत एवं कमजोरी दोनों का विश्लेषण करना होता है अर्थात अवसरों की जानकारी प्राप्त करने के लिए अतिरिक्त साधनों के साथ-साथ बाहरी वातावरण को भी ध्यान में रखना चाहिए।

2. उद्देश्यों का निर्माण करना— व्यवसाय के लिए उपलब्ध अवसरों की पहचान कर लेने के बाद उद्देश्यों का निर्माण किया जाता है सर्वप्रथम संस्था या उपक्रम के सामान्य उद्देश्य निर्धारित किए जाते हैं तथा इसके बाद प्रत्येक विभाग के उद्देश्यों निश्चित कर दिए जाते हैं क्योंकि नियोजन प्रक्रिया में उठाए जाने वाला प्रत्येक कदम उद्देश्य की प्राप्ति की ही बात करता है इसलिए यह नियोजन प्रक्रिया का केंद्र बिंदु होता है उद्देश्य स्पष्ट निश्चित एवं सरल होने चाहिए और संस्था के सभी अधिकारियों एवं कर्मचारियों को उनसे परिचित कर देना चाहिए ताकि वह उद्देश्य प्राप्त में सहयोग कर सकें।

3. नियोजन की सीमाओं व आधार का निर्माण करना— नियोजन प्रक्रिया की तीसरा कदम संस्था के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए की जाने वाली क्रियाओं को प्रभावित करने वाले तत्वों का निर्माण करना है इस तत्व अथवा सीमाओं को दो भागों में बांटा जाता है 

  • बाहरी तत्व — ऐसे तत्व जिनका संबंध बाहरी वातावरण से है और जिन पर संस्था का कोई नियंत्रण नहीं होता भारी तत्व कहलाते हैं जैसे सरकार की आर्थिक और औद्योगिक एवं कर नीति।
  • आंतरिक तत्व — आंतरिक तत्वों में पूंजी ,श्रम ,कच्चा माल ,मशीन आदि की उपलब्धि की जाती है।

4. पूर्व अनुमान लगाना— पूर्ण मन लगाना नियोजन प्रक्रिया का चौथा कदम है जो कि नियोजन सीमाओं पर आधारित होता है और पूर्वानुमान लगाने से पहले नियोजन की सीमाओं तथा मान्यताओं की सूची तैयार की जाती है इसके बाद उस सूची में सम्मिलित आंतरिक एवं बाहरी तत्वों में पूर्ण मान लगाए जाते हैं।

5. वैकल्पिक मार्गों की खोज करना— प्रत्येक कार्य को करने के अनेक ढंग होते हैं कोई भी कार्य ऐसा नहीं होता जिस के वैकल्पिक मार्ग ना हो संस्था के उद्देश्य एवं नियोजन सीमाओं के आधार पर एक ही कार्य को करने के अनेक तरीकों की खोज की जाती है।

6. विकल्पों का मूल्यांकन करना— वे सभी विकल्प जो न्याय तम प्रारंभिक मापदंड के आधार पर खरे उतरते हैं उन्हें गहन अध्ययन के लिए चुन लिया जाता है यहां पर यह देखा जाएगा कि प्रत्येक विकल्प संस्था के उद्देश्य को कहां तक पूरा करता है।

नियोजन के महत्व की व्याख्या कीजिए | नियोजन के महत्व

व्यवसाय हो या सामान्य जीवन धर्म हो या राजनीतिक किसी भी क्षेत्र में नियोजन के महत्व को नकारा नहीं जा सकता सत्य तो यही है कि बिना नियोजन के आज कोई भी कार्य अधूरा सा लगने लगता है बिना मानचित्र बनाया हम एक अच्छे भवन निर्माण की कल्पना नहीं कर सकते हैं आज व्यवसाय में प्रतिदिन हमें नियोजन का सहारा लेना पड़ता है इसलिए कहा गया है कि नियोजन व्यवसाय का आधार स्तंभ है जिस प्रकार मकान का आधार कमजोर हो तो पूरा मकान कमजोर होगा वैसे ही किसी व्यवसाय का नियोजन ही कमजोर रहता है तो वह व्यवसाय कभी भी सशक्त व विकसित नहीं हो सकता नियोजन के महत्व को स्पष्ट करते हुए जी. डी. एच. कोल ने कहा है कि बिना नियोजन के कोई भी कार्य तीर और तुक्के पर आधारित होगा जिससे केवल भ्रम संदेह एवं अव्यवस्था ही उत्पन्न होगी नियोजन के महत्व को अग्र शेर से कौन द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है।

Niyojan ke Mahatva | नियोजन के महत्व

1. प्रबंध के कार्यों का आधार— प्रबंध के अंतर्गत आने कार्य किए जाते हैं जैसे संगठन निर्णय नियंत्रण समन्वय अभिप्रेरणा आदि इन सभी कार्यों को कैसे पूरा करना है इस हेतु एक योजना बनाई जाती है इस के साथ विभिन्न नीतियों व कार्यों विधियों को कैसे लागू किया जाए ताकि लक्ष्य को प्राप्त किया जा सके इस हेतु एक योजना अवश्य बना ली जाती है इस प्रकार प्रबंध के अन्य कार्यों का नियोजन आधार है।

2. भावी अनिश्चितता को दूर करने के लिए— बिना नियोजन के भविष्य के प्रत्येक कार्य में अनिश्चितता रही है कि अब क्या कैसे करना है अतः इस अनिश्चितता से बचने के लिए नियोजन करना अत्यंत आवश्यक हैं इतना ही नहीं विभिन्न प्राकृतिक एवं अन्य कारकों से भविष्य में अनेक परिवर्तन होते रहते हैं अतः इन परिवर्तनों का सम्मान करने के लिए भी एक नियोजन बनाना अच्छा होता है।

3. उतावले निर्णयों से बचने के लिए— एक कहावत है कि जल्दी का काम शैतान का अर्थात उतावले या शीघ्र निर्णय उसी समय लेना चाहिए जब कोई अन्य विकल्प ना हो उतावले निर्णयों की सफलता पर सदैव संदेह रहता है इसलिए व्यवसाय के उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु पूर्व में ही नियोजन कर लिया जाए तो उतावले निर्णयों से बचा जा सकता है ऐलन ने कहा है नियोजन के माध्यम से उतावले निर्णय और अटकलबजी कार्यों की प्रकृति को समाप्त किया जा सकता है।

4. साधनों का सदुपयोग— प्रत्येक उपक्रम के पास साधन होते हैं अतः उपलब्ध साधनों का सदुपयोग करना प्रत्येक उपक्रम के लिए आवश्यक है इस हेतु नियोजन के अंतर्गत विभिन्न आंकड़ों व प्रवृत्तियों के द्वारा भविष्य की घटनाओं का अनुमान लगाया जा सकता है ताकि लक्ष्य को आसानी से प्राप्त किया जा सके नियोजन से उपक्रम के सभी साधनों का सदुपयोग किया जा सकता है।

5. लागत व्यय में कमी—  नियोजन में प्रत्येक स्तर पर की जाने वाली क्रियाओं के वी आय का पूर्वानुमान लगाया जाता है यदि किसी स्तर पर व्यय का अनुमान अधिक हो तो उसे पूर्ण मान करते समय है काम करने के उपाय खोजे जा सकते हैं साथ ही नियोजन द्वारा विभिन्न क्रियाओं में आने वाली लागत को भी नियंत्रित किया जा सकता है नियोजन में वस्तु की लागत के विभिन्न स्तर पर लागत का अनुमान लगाकर एक मानक निर्धारित किया जाता है तत्पश्चात इसी मानक को ध्यान में रखकर उत्पादन पर व्यय किए जाते हैं।

6. शैक्षणिक संस्था के लिए महत्व— कक्षा बारहवीं के छात्रों को क्या शिक्षा देनी है या माध्यमिक शिक्षा मंडल की एक नियोजन है कि इस योजना में सभी कक्षा के लिए पाठ्यक्रम निर्धारित किया जाता है उस पाठ्यक्रम को एक शिक्षा शास्त्र में अध्यापन अध्ययन कार्य की योजना व्याख्याता द्वारा तैयार की जाती है परीक्षा का कार्य बिना योजना के संभव ही नहीं है इसी प्रकार स्कूल व्यवस्था समय सारणी सब कुछ योजना ही है कैसे शिक्षक किस काल खंड में किस कक्षा में व किस कक्षा में अध्यापन कार्य करेगा या सब योजना के अंग हैं अतः शैक्षणिक संस्थाओं के लिए भी योजना का विशेष महत्व है।

निष्कर्ष— हम कह सकते हैं कि आज प्रगतिशील व प्रतिस्पर्धा के युग में कोई भी व्यवसाय उपक्रम या संस्था बिना नियोजन के आगे नहीं बढ़ सकती बिना नियोजन के व्यापार व उद्योग की तुलना बिना पतवार कि नाव से की जाती है बिना पतवार के नाव की जो दशा होती है वही दशा बिना नियोजन के उद्योग एवं व्यापार की भी होती है।

नियोजन के सिद्धांत | niyojan ke shiddhant

1. उद्देश्यों के प्रति योगदान का सिद्धांत— यह सिद्धांत इस बात पर बल देता है कि नियोजन संस्था के उद्देश्यों की प्राप्ति में योगदान देने वाला होना चाहिए यह सिद्धांत इस बात की ओर भी संकेत करता है कि किसी भी नियोजन को जब तक उद्देश्य मुक्त नहीं किया जा सकता तब तक 1 योजन अच्छा परिमाण नहीं दे सकता है।

2. नियोजन की मान्यताओं का सिद्धांत—‌ सामान्य किसी भी कार्य को करने की कुछ मान्यताएं हैं जिनको ध्यान में रखते हुए भी कार्य किया जाता है अच्छे नियोजन की मान्यता को पहले से ही निश्चित किया जाना चाहिए इससे सामान्य व से कार्य मैं अत्यधिक सहायता मिलती है।

3. कार्यकुशलता का सिद्धांत— इसी सिद्धांत के अनुसार नियोजन न्यूनतम तनु एवं लागतो द्वारा संगठन या संस्था के लक्ष्यों की प्राप्ति में सहयोग देने वाला होना चाहिए।

4. लोच का सिद्धांत— इस सिद्धांत के अनुसार योजना या नियोजन सदैव रोजगार व परिवर्तनशील होना चाहिए क्योंकि भविष्य की समस्याओं एवं परिस्थितियों के अनुसार नियोजन में परिवर्तन आवश्यक है।

5. व्यापकता का सिद्धांत— इस सिद्धांत के अनुसार नियोजन एक सर्वव्यापी क्रिया है जिसकी आवश्यकता एक उपक्रम में प्रबंध के सभी स्तरों में होती है अतः नियोजन प्रबंध के सभी स्तरों के अनुसार होना चाहिए।

6. समय का सिद्धांत— नियोजन में समय का विशेष महत्व है क्योंकि समय का नियोजन बनाकर उचित समय पर क्रिया नहीं हो सकता तो लक्ष्य को प्राप्त करना कठिन होगा।

नियोजन के तत्व | niyojan ke tatv

1. कार्यक्रम— किसी कार्य को संपन्न करने की योजना को कार्यक्रम कहा जाता है कार्यक्रम एक उद्देश्य की प्राप्ति के लिए आवश्यक प्रयासों की एक श्रेणी है जो क्रम में व्यवस्थित होते हैं।

2. नीतियां— लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए जिन सिद्धांतों को ध्यान में रखा जाता है वह सिद्धांत ही नीतियां कहलाती हैं। नीतियां प्रबंध क्रियाओं का मार्गदर्शन करती है।

3. बजट— बजट भविष्य के लिए खर्चों का पूर्वानुमान होते हैं। बजट बन जाने से खर्चों को नियंत्रित एवं नियमित किया जा सकता है। बजट भविष्य की आवश्यकताओं का अनुमान है जो व्यक्तियों द्वारा लगाया जाता है और एक निश्चित समय में एक निश्चित उद्देश्य को प्राप्त करने का स्पष्टीकरण देता है। यह भविष्य की योजनाएं होती हैं इसके बनने के बाद ही विभिन्न भागों के क्रियाकलापों की सीमा निश्चित हो जाती है।

4. मोर्चाबंदी— मोर्चाबंदी एक व्यवहारिक योजना है जिसमें प्रतिस्पर्धा को ध्यान में रखकर योजना बनाई जाती है। कार्यक्रम के उद्देश्य की प्राप्ति के लिए आवश्यक प्रयासों की एक श्रेणी है जो प्राथमिकता के क्रम में व्यवस्थित होते हैं।

5. लक्ष्य— लक्ष्य नियोजन का आधार होते हैं, ‌ इन्हें परिणामों की प्राप्ति के लिए भविष्य की समस्त क्रियाएं लिखी जाती हैं। लक्ष्यों के द्वारा हमें क्या करना है, का ज्ञान होता है।

नियोजन की विशेषताएं | niyojan ki vhishestayen

1. निश्चित लक्ष्य— प्रबंध का प्रथम कार्य है नियोजन करना नियोजन के कुछ निश्चित लक्ष्य होते हैं इस लक्षणों के आधार पर ही योजनाएं तैयार की जाती है जिससे लक्ष्यों को आसानी से प्राप्त किया जाता है।

2. पूर्वानुमान— नियोजन में पूर्वानुमान का विशेष महत्व है जानकारी एवं आंकड़ों के आधार पर पूर्व अनुमान किए जाते हैं जिससे योजनाएं बनाने में काफी सुविधा होती है हेनरी फेयोल के इस हेतु PREVOYANCE शब्द का प्रयोग किया है जिसका आशा है आगे देखना होता हैं।

3. श्रेष्ठ विकल्प का चुनाव— योजना बनाते समय विभिन्न विकल्पों को तैयार कर उनकी तुलना की जाती है तत्पश्चात उसमें से श्रेष्ठ का चुनाव कर कार्य हेतु योजनाएं एवं नीतियां बनाई जाती है।

4. सर्व व्यापकता— संपूर्ण प्रबंध में नियोजन व्याप्त है प्रबंध के प्रयोग क्षेत्र में नियोजन का अस्तित्व है प्रत्येक प्रबंधक को योजनाएं बनानी पढ़ती है इसी प्रकार फोर मैंने भी अपने स्तर पर योजनाएं बनाता है या ऐश्वर्या पी है।

5. लोचता— योजना में लॉज का गुण अवश्य रहता है अर्थात आवश्यकता अनुसार उसमें परिवर्तन करना पड़ता है योजना जितनी लचीली होगी योजनाएं उतने ही सरल होगी अर्थात योजना में लोचता होनी चाहिए।

6. निरंतरता— योजना केवल एक बार बनने की वस्तु नहीं है अपितु योजना बनाने का कार्य निरंतर चलता रहता है आवश्यकता अनुसार पुरानी योजनाओं में संशोधन भी किया जाता है योजनाएं निरंतर चलती रहती है।

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