मौर्य प्रशासन PDF, मौर्य कालीन शासन व्यवस्था

मौर्यों की प्रशासनिक व्यवस्थाओं का वर्णन कीजिए

मौर्यों का समाज बहुत बड़ा था। मौर्यों के विकास के पहले भारत अनेक छोटे बड़े टुकड़ों में बटा हुआ था। जिनमें अनेक शासन पद्धतियां रहती थी। कुछ जनपदों में राजतंत्र तथा कुछ जनपदों में गणतंत्र शासन व्यवस्था विद्यमान थी। मौर्यों के उत्थान के बाद अनेक मौर्य शासकों,‌ चंद्रगुप्त मौर्य, बिंदुसार, अशोक आदि ने एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की।

इस साम्राज्य को सुव्यवस्थित रूप से चलाने के लिए चंद्रगुप्त मौर्य ने एक सुदृढ़ शासन स्थापना की। यही शासन व्यवस्था मौर्य वंश के अंत तक चली। इस शासन व्यवस्था में अशोक ने कुछ परिवर्तन किए। कौटिल्य का ‘अर्थशास्त्र’ मेगास्थनीज की ‘इंडिका’ यूनानीयों के विवरण अशोक ने शिलालेख एवं जैन और बौद्ध ग्रंथ आदि से मौर्य की शासन प्रणाली के विषय में महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है।

मौर्य कालीन शासन व्यवस्था

1. केंद्रीय शासन-

1. राजा- मौर्य शासन का स्वरूप राजतंत्रात्मक था। अतः मौर्य शासन का सर्वोच्च अधिकारी स्वयं राजा होता था। राज्य की समस्त शक्तियां उन्हीं के हाथों में केंद्रित थी। यद्यपि राजा सिद्धांत के रूप में निरंकुश था। परंतु व्यवहार में उस पर अनेक प्रतिबंध लगे होते थे। एक विशाल मंत्री परिषद राजा की निरंकुशता पर नियंत्रण लगाए रखती थी।शासन संबंधी मुख्यमंत्री एवं सेना संबंधी कर्तव्यों का पालन राजा पूरी लगन के साथ करता था।
 
राजा मंत्रियों, पदाधिकारियों, राजदूतों की नियुक्ति करता था। प्रशासनिक कार्यों में अपनी कर्तव्यों को पूरा करने के लिए कड़ा परिश्रम करता था। सामान्यतः राजा मंत्री परिषद की मंत्रणा से ही शासन करता था। परंतु वह मंत्री परिषद की बातों को मानने के लिए बाध्य नहीं था। और अर्थशास्त्रियों से यह पता चलता है कि मौर्य शासन को कानून बनाने का पूर्ण अधिकार था।

2. मंत्री परिषद- मौर्य राजा की सहायता के लिए एक मंत्री परिषद होती थी जिसका उल्लेख कौटिल्य के अर्थशास्त्र में मिलता है। मंत्री परिषद राजा को प्रशासनिक कार्यों में अपना अमूल्य सहयोग प्रदान करती थी। मंत्री परिषद के सदस्यों की संख्या आवश्यकतानुसार घटाई बढ़ाई जा सकती थी। मंत्री परिषद की बैठक जिस भवन में होती थी उसे मंत्र भूमि कहते थे। मंत्री परिषद की कार्यवाही गुप्त रखी जाती थी। मंत्रियों की नियुक्ति स्वयं राजा करता था। मंत्रियों के सदस्यों को चांदी के बने 12,000 पान वेतन दिया जाता था। और एक सिक्का 3/4 तोला के बराबर होता था।

 

3. मंत्री- दैनिक कार्यों हेतु राजा कुछ मंत्रियों की नियुक्ति करता था यह मंत्री परिषद से अलग होते थे। इन मंत्रियों के परामर्श से राज्य पदाधिकारियों की नियुक्ति करता था, और इन मंत्रियों को अधिक वेतन दिया जाता था।

 

4. विभागीय व्यवस्था- शासन को सुचारू रूप से चलाने के लिए आवश्यकतानुसार ‌कई ‌‌‍भागों में बांट दिया जाता था। जिन्हें तीर्थ कहा जाता था। प्रत्येक विभाग के संचालन के लिए एक सर्वोच्च अधिकारी होता था। जिसे ‘अमात्य’ कहा जाता था। प्रत्येक विभाग के अन्य उपविभाग होते थे। इनके अधिकारी को अध्यक्ष कहा जाता था। यह संबंधित विभाग के अमत्य के अधीन कार्य करते थे। अर्थशास्त्र में जिन अमत्यों का वर्णन किया गया वे इस प्रकार हैं।

  • मंत्री एवं पुरोहित
  • समाहर्ता
  • सनीधाता
  • सेनापति
  • युवराज
  • प्रदेष्टा
  • व्यवहारिक
  • नायक
  • कर्मान्तिक
  • मंत्रीपरिषद् अध्यक्ष
  • दंडपाल
  • अन्तपाल
  • दुर्ग पाल
  • नागरिक अथवा पौर
  • प्रसास्था
  • दौवारिक
  • आंतर्वाशिक
  • आटविक

2. प्रांतीय शासन- अत्याधिक विशाल साम्राज्य होने के कारण संपूर्ण साम्राज्य पर केंद्र से शासन करना संभव नहीं था। अतः शासन सुविधा की दृष्टि से मौर्य शासकों ने संपूर्ण मौर्य साम्राज्य को 5 प्रांतों में बांट दिया था। इन प्रांतों को ‘चक्र’ कहा जाता था। इन प्रांतों की संख्या अलग-अलग शासकों के काल में अलग-अलग थी, किंतु अशोक के शासनकाल में पांच प्रांत अस्तित्व में आए थे वह इस प्रकार से हैं—

      प्रांत       |         इन प्रांतों की राजधानी

  1. उत्तरापथ      -      तक्षशिला
  2. अवंती      -     उज्जयिनी
  3. दक्षिणापथ    -    सुवर्णगिरी
  4. कलिंग    -    तोषाली
  5. मध्यदेश     -    पाटलिपुत्र।

साधारणत: इन प्रांतों के शासक राजवंश यह व्यक्ति होते थे जिन्हें कुमार कहा जाता था, यह कुमार अपने-अपने प्रांतों पर महामात्यों की सहायता से शासन करते थे। इन प्रांतों पर सम्राट का पूर्ण नियंत्रण रहता था। 

3. न्याय प्रशासन- मौर्य शासकों ने न्याय के लिए अत्यंत ही उत्तम एवं उच्च स्तरीय न्याय व्यवस्था की स्थापना की थी। और इसके लिए न्यायालयों की स्थापना की गई थी। इन न्यायालयों में राजा कार्यालय सर्वोच्च होता था। अन्य न्यायालयों में जनपद, द्रोणामुख्य, संग्रहण व ग्राम न्यायालय होते थे। जिनी न्यायालयों में व्यक्तियों के वाद-विवाद मामलों पर निर्णय लिया जाता था वह कंटक शोधन न्यायालय कहलाते थे। नगर न्यायालय के न्यायाधीश को व्यवहारिक ‘महामात्र’ तथा जनपद के न्यायाधीश को राजूक कहा जाता था।

मेगास्थनीज के विवरण से यह ज्ञात होता है कि मौर्य शासकों की दंड व्यवस्था अत्यधिक कठोर थी। साधारण अपराध के लिए भी कठोर दंड दिया जाता था। गंभीर अपराधों के लिए अंग भंग का दंड दिया जाता था। राजद्रोह के अपराध के लिए मृत्युदंड दिया जाता था। लेकिन अशोक ने दंड व्यवस्था को लचीली कर दी थी।

4. राजस्व प्रशासन- मौर्य शासकों ने उच्च कोटि की राजस्व व्यवस्था की स्थापना की। राज्य की आय के प्रमुख स्रोत भूमि का आयात निर्यात कर विक्रीकर दंड एवं राजकीय व्यापार आदि थे। विभिन्न स्रोतों से आय नियमित बजट के अनुसार खर्च की जाती थी। साधारण प्रमुख ब्यय राजपरिवार, सेना कर्मचारियों का वेतन दान शिक्षा व्यवस्था भवन निर्माण व अन्य लोक कल्याणकारी कार्यों पर किया जाता था।

5. गुप्तचर व्यवस्था- देश में शांति व्यवस्था बनाए रखने के लिए मौर्य शासकों ने गुप्त चरों का जाल बिछा रखा था जिनके माध्यम से राज्य में होने वाली प्रत्येक छोटी-बड़ी घटना की जानकारी व प्राप्त करता था। गुप्तचरों में स्त्री पुरुष दोनों ही रखे जाते थे। कौटिल्य के अनुसार स्त्री गुप्त चरणों में वेश्या, दासी भिक्षुणी व शिल्पकारीका आदि होती थी। स्त्री व पुरुष गुप्त चर वेश धारण कर अपराधियों का पता लगाते थे। गुप्तचरों की दो श्रेणियां थी-

प्रथम ‘संस्था’- इस प्रकार के गुप्त सर एक स्थान पर रहकर कार्य करते थे।

द्वितीय ‘संचारा’- इस प्रकार की गुप्तचर विभिन्न स्थानों पर घूमते रहते थे।

यह स्पष्ट है कि दूसरों की व्यवस्था उच्च कोटि की थी। यही कारण है कि डॉ. स्मिथ ने मौर्य शासकों की गुप्तचर व्यवस्था की तुलना आधुनिक जर्मनी की गुप्तचर व्यवस्था से की है।

6. सैन्य प्रशासन- अनेक इतिहासकारों ने मौर्य युग को सैनिक युग कहा है। संभवत यही कारण है कि मौर्य शासकों ने शक्तिशाली सेना की व्यवस्था की थी। यद्यपि अशोक ने शांति की नीति को अपना लिया था किंतु इस पर भी उसने चंद्रगुप्त मौर्य की सैन्य व्यवस्था में कोई परिवर्तन नहीं किया था। डॉ. स्मिथ ने मौर्य सेना को अकबर की सेना से भी अधिक शक्तिशाली बताया है। वास्तव में अपनी शक्तिशाली सेना के बल पर ही चंद्रगुप्त मौर्य ने सेल्यूकस की सेना को और अशोक ने कलिंग की सेना को तहस-नहस कर दिया था।

7. लोकहित के कार्य- प्रजा के कल्याण हेतु सड़क में जलाशय अस्पताल, धर्मशाला, मठ, बिहार आदि का निर्माण कराया। समय-समय पर इनकी मरम्मत भी करवाई। सड़कों के दोनों ओर छायादार वृक्ष लगवाने तथा जनता की उन्नति के लिए हर संभव प्रयास किए। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि मौर्यकालीन शासन व्यवस्था उच्च कोटि की थी। अपनी उच्च कोटि की शासन व्यवस्था के कारण ही मौर्य शासकों ने एक लंबे समय तक विशाल साम्राज्य का सफलतापूर्वक शासन किया।

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