गुप्त काल की विशेषताएं

गुप्त काल की प्रमुख विशेषताएं

गुप्तकाल वैभव और समृद्धि का युग रहा था। कला के सभी अंगों जैसे स्थापत्य, मूर्ति, चित्रकला में मौलिक अभिव्यक्ति पाई जाती है। गुप्तों के सुसंस्कृत और उन्नति शील युग में कला ने अधिक सुंदर रूप प्रस्तुत कर लिया तथा वह अती  गहन हो गई। गुप्त कला निम्नलिखित भागों में बांटा गया है-

  1. वास्तु कला
  2. मूर्तिकला
  3. चित्रकला
  4. संगीत कला

1. वास्तु कला- गुप्त काल में वस्तु कला के क्षेत्र में बहुत उन्नति हुई। गुप्तकालीन वस्तु कला के नमूनों को लिखित भागों में विभक्त किया जा सकता है-

  1. राजप्रसाद- राज प्रसाद ओं के कमरे चित्रों से अलंकृत होते थे अमरावती व नागार्जुनी गोंडा में राज प्रसाद ओं के चित्रों से पता चलता है कि वह अनेक मंजिलों की भव्य इमारतें थी जिसमें विभिन्न प्रकार की अलंकृत खिड़कियां होती थी।
  2. स्तंभ- इस युग में कीर्ति स्तंभों, ध्वज स्तंभों, स्मारक स्तंभों आदि का भी निर्माण हुआ इस युग के स्तंभ चतुष्कोणीय, अष्टकोणीय तथा बहूकोणीय होते थे। स्तंभों के शीर्ष पर प्रायः गरुड़ या सिंह की मूर्तियां निर्मित की जाती थी। और भीतरी के स्तंभ इस युग के स्तंभ निर्माण कला के सर्वोत्तम उदाहरण हैं।
  3. गुहावस्तु- पूर्ववर्ती युग की तरह इस युग में भी स्तूप, चैत्य, दरीगृह, बिहार और मठों का निर्माण हुआ परंतु इस युग में गुहा वस्तु का अभूतपूर्व विकास हुआ। हिंदू और बौद्ध दोनों धर्मों की प्रेरणा और प्रश्रय में यह कला विकसित हुई उदयगिरी और मांडा की गुफाएं हिंदू गुहा वस्तु कला का सर्वोत्तम उदाहरण है।
  4. चैत्य एवं विहार- गुप्त युग में चैत्यों और विहारों का निर्माण स्वतंत्र रूप से भी हुआ। गुप्त युग इन क्षेत्रों और विहारों के अवशेष सांची, सारनाथ, बोधगया आदि स्थलों से प्राप्त हुए हैं गुप्तकालीन स्तूपों का आधार वर्गाकार और गोलाकार दोनों होता था।
  5. मंदिर निर्माण कला- मंदिर निर्माण कला की दृष्टि से यह युग विशेष उल्लेखनीय है इस युग के मंदिरों की  विशेषताएं इस प्रकार से हैं-

  • मंदिर का निर्माण उचे चबूतरे पर होता था।
  • चबूतरे पर चढ़ने के लिए चारों तरफ सीढ़ियां होती थी।
  • मंदिर की बाहरी दीवार पूर्णता होती थी परंतु गर्भ गृह का द्वार अलंकृत होता था।
  • गर्भगृह और मंडल के चारों ओर ढका हुआ प्रदाशिक्षणापथ होता था।
  • मंदिर की छत स्तंभों पर आधारित होती थी स्तंभ का शीर्ष अलंकृत होता था।

2. मूर्तिकला- मूर्ति कला की प्रमुख विशेषताएं इस प्रकार से हैं-

  1. इस युग के कलाकारों ने शारीरिक सौंदर्य के साथ ही साथ आंतरिक सौंदर्य का भी चित्रण किया है, भावों की अभिव्यक्ति पर विशेष जोर दिया है।
  2. इस युग के पूर्व की मूर्तियां सघन वस्त्रों और आभूषणों से अलंकृत है परंतु इस युग के कलाकारों ने शारीरिक प्रदर्शन के लिए भी वस्तुओं का प्रयोग किया है।
  3. इस युग के पूर्व की प्रतिमाएं पशु पक्षियों और वनस्पतियों से घिरी हुई दिखाई जाती थी। परंतु इस युग के कलाकारों ने पशु पक्षियों और वनस्पतियों का प्रयोग फलक के किनारे को अलंकृत करने के लिए किया है इस युग में अभाव के अभिव्यंजना अधिक सशक्त पूर्ण ढंग से हुई है।
  4. इस युग के पूर्व की मूर्तियों में उत्तेजना पूर्ण शारीरिक क्रियाओं और सहायकों की अभिव्यक्ति दृष्टिगोचर होती है। परंतु इस युग की मूर्तियों में शारीरिक और मानसिक अनुशासन और संतुलन दिखाई देता है।
  5. इस युग की मूर्तियों का आभालमंडल अलंकृत है।
  6. विदेशी प्रभाव और अलंकार का भारतीयकरण इस युग की प्रमुख विशेषता है।

3. गुप्त काल की चित्रकला- स्थापत्य और मूर्तिकला के समान इस युग में चित्रकला की भी अपनी पराकाष्ठा पहुंच गई। इस युग के चित्रकला के सर्वोत्कृष्ट उदाहरण अजंता और बाग की गुफाओं में मिलते हैं। अजंता की गुफाओं में मैत्री, करुणा, प्रेम, क्रोध, लज्जा, हर्ष, उत्साह, घृणा आदि सभी प्रकार के भावों को प्रदर्शित किया गया है। चित्रकारों ने स्त्री पुरुष में शारीरिक अनेक केश-विन्यास, मुख्य-मुद्रा और भाव-भागीमां का बड़ा ही सफलतापूर्वक चित्रांकन किया है इस युग की चित्रकला की विशेषताएं इस प्रकार से हैं।

  1. रूपरेखा की कोमलता
  2. रंगों की उज्जवलता
  3. अनुपम भावपूर्णता।

4. संगीत कला- इस काल में संगीत की भी सर्वांगीण उन्नति हुई। वात्स्यायन संगीत के तीनों अंगों गायन, वादन और नर्तन का उल्लेख करते हैं। इस युग के साहित्य में संगीत और विभिन्न प्रकार के वाद्य यंत्रों का उल्लेख मिलता है समुद्रगुप्त के कुछ सिक्कों में उसे वीणा वादन करते हुए दिखलाया गया है। नृत्य एवं अभिनव कला भी काफी विकसित और बड़ी ही लोकप्रिय थी।

गुप्त कालीन साहित्य

यह युग महान साहित्य क्रियाशीलता का युग था। इस युग में साहित्य की अभूतपूर्व प्रगति हुई। देववाणी संस्कृत संपूर्ण देश की भाषा बन गई। गुप्त सम्राटों के समस्त शिलालेख, दान पत्र, स्तंभलेख, मुद्रा लेख आदि विशुद्ध संस्कृत में लिखे गए थे। बौद्ध तथा जैन अचार्य और दर्शन शास्त्रियों ने प्राकृतिक और पाली को छोड़कर संस्कृत भाषा को अपनाया। संस्कृत भाषा में अत्यंत उच्च कोटि के साहित्य की रचना हुई। इस युग के शासक साहित्य के महान प्रेमी थे। उनके साहित्य के कारण संस्कृत भाषा और साहित्य को पर्याप्त प्रोत्साहन मिला। 'प्रयाग प्रशस्ति' में गुप्त नरेश समुद्रगुप्त को कविराज कहा गया। वह विद्वानों का आश्रय दाता भी था। प्रयाग प्रशस्ति के रचयिता हरिषेण उसकी राज्यसभा को सुशोभित करता था। सम्राट चंद्रगुप्त महान विद्या प्रेमी था। उसकी राज्यसभा नवरत्नों से सुशोभित थी। कालिदास इन में सबसे आगे थे। उनका मंत्री वीरसेन व्याकरण न्याय और लोकाचार का महान विद्वान था। सम्राट कुमारगुप्त प्रथम के शासनकाल का प्रसिद्ध कवि वत्सभटि्ट था, जिसने मंदसौर प्रशस्ति की रचना सुंदर काव्यात्मक संस्कृत भाषा में की है। महरौली स्तंभ लेख और स्कंद गुप्त के भीतरी स्तंभ लेख की भाषा अत्यंत कामयाबी काव्यमयी है।

विशुद्ध साहित्य

इस युग में विशुद्ध साहित्य का अभूतपूर्व विकास हुआ। साहित्यकारों, कवियों, लेखकों और नाटककारों ने उच्च कोटि के महाकाव्य, खंडकाव्य, नाटकों और आख्यायिकाओं की रचना की इनमें निम्नलिखित रचनाकारों के नाम विशेष उल्लेखनीय है।

1. कालिदास- महाकवि कालिदास गुप्त युग इंटरव्यू में प्रथम श्रेणी के कवि हैं। कालिदास की रचनाओं से अनुमान होता है कि उसका जन्म उज्जैन में हुआ था।

कालिदास के साथ कृतियां हैं इनमें से चार काव्य हैं

  1. ऋतुसंहार
  2. मेघदूत
  3. रघुवंश
  4. कुमारसंभव।

रघुवंश और कुमारसंभव काव्य ऋतुसंहार गीतिकाव्य है और मेघदूत खंड काव्य है। इसके अतिरिक्त 3 नाटक हैं

  1. मालविकागि्नामित्र
  2. विक्रमोर्वशीय
  3. अभिज्ञान शाकुन्तल।

ऋतुसंहार में कालिदास का प्रकृति प्रेम प्रदर्शित होता है। मेघदूत वियोग और श्रृंगार की श्रेष्ठ साहित्य रचना है। कोमल भावना की अभिव्यक्ति एवं विषय की बहुलता के कारण इसे कालिदास की सर्वोत्कृष्ट रचना कहा जाता है। अपने महाकाव्य रघुवंश में कालिदास ने श्री रामचंद्र के पूर्वजों श्री राम के चरित्र और उनके वंशजों का चरित्र चित्रण 19 वर्ग में किया है। कुमारसंभव महाकाव्य में कालिदास ने पार्वती और शिव के प्रसंगों का वर्णन किया है।

2. भास- भास इस युग के महान नाटककार थे। स्वयं कालिदास ने उनकी प्रशंसा की है। उन्होंने 13 नाटकों की रचना की है। इनमें 'स्वप्नवासवदत्ता' तथा 'प्रतिज्ञायोगन्धरायण' विशेष उल्लेखनीय है। उनकी भाषा में सरलता और स्वाभाविक था है परंतु विद्वानों में उनके युग के संबंध में मतभेद है।

3. शूद्रक- शुद्रक इस युग के महान नाटककार थे। 'मृच्छकटिक' संस्कृत साहित्य का एक अत्यंत लोकप्रिय और अद्भुत नाटक है, जिसमें समाज के यथार्थ वादी दैनिक जीवन का चित्रण किया गया है। यह अपने ढंग का अनूठा नाटक है।

4. विशाखदत्त- विशाखदत्त ने 'मुद्राराक्षस' और 'देवीचंद्रगुप्तम' नामक दो नाटकों की रचना की परंतु यह अपने मूल रूप में आज उपलब्ध नहीं है।

5. सुबन्धु- सुबन्धु इस युग के प्रसिद्ध लेखक थे। उनकी प्रसिद्ध कृति वासवादता है। लंबे समासों और अनेक विशेषणों से युक्त शैली के लिए संस्कृत साहित्य में उनका विशिष्ट स्थान है।

6. भर्तृहरि- इनकी रचनाएं ‘नीतिशतक’ ‘श्रृंगार शतक' और ‘वैराग्यशतक’ संस्कृत साहित्य की अनमोल धरोहर रही।

7. अन्य रचनाकार- इस युग के प्रसिद्ध केशकार अमरसिंह थे। जिन्होंने 'अमरकोश' की रचना की पतंजलि के महाभाष्य पर अनेक टिकाए लिखी गई। कश्मीरी बौद्ध विद्वान चंद्र ने व्याकरण पर एक ग्रंथ लिखा जो बहुत ही लोकप्रिय था। वात्स्यायन के काम सूत्र की रचना इसी युग में हुई इस युग में अर्थशास्त्र पर 'कामन्दीयचं नीतिसार' की रचना की गई।

गुप्तकालीन विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी | गुप्त काल में विज्ञान और प्रौद्योगिकी

गुप्त काल में विज्ञान और प्रौद्योगिकी की भी काफी प्रगति हुई गणित चिकित्सा रसायन शास्त्र ज्योतिष आदि सभी क्षेत्रों में भारतीय वैज्ञानिकों ने अपनी प्रतिभा का प्रतिपादन किया।

1. ज्योतिष- वेदांग में ज्योतिष तथा नक्षत्र विद्या का उल्लेख आता है। तीसरी शताब्दी से पूर्व भारत को ज्योतिष के सिद्धांतों का ज्ञान था। इस सिद्धांत के अनुसार वर्ष में 366 दिन होते थे। वर्ष की गणना नक्षत्रों से होती थी। 300 ई. के लगभग वशिष्ठ सिद्धांत का विकास हुआ। सिद्धांत में नक्षत्रों का स्थान राशि ने ग्रहण किया। गुप्त युग के पूर्व ज्योतिष के संबंध में विकास हुआ यह सिकंदरिया व अलेक्जेंड्रिया में हुआ था।

भारत में आर्यभट्ट ने ज्योतिष के क्षेत्र में नए सिद्धांतों का विकास किया। गुप्त काल में आर्यभट्ट ने सर्वप्रथम पृथ्वी की परिधि को नापा तथा प्रतिपादित किया कि पृथ्वी गोल है। और वह अपनी दूरी पर चलती है। उन्होंने सूर्यग्रहण तथा चंद्रग्रहण के वास्तविक कारणों पर प्रकाश डाला तथा बताया कि इसका कारण राहु केतु ना होकर चंद्रमा तथा पृथ्वी की छाया मात्र है। उन्होंने पावर आणिक धारणाओं का खंडन किया।

आर्यभट्ट के पश्चात वाराह्मीहिर ने ज्योतिष के क्षेत्र में अनेक ग्रंथ लिखे। उनके ग्रंथ हैं, लघु जातक, वृहज्जातक, योगमाया, विवाह पटल, बृहदसंहिता तथा (पंच सिद्धांतिका)। बृहदसंहिता में उन्होंने नक्षत्रों की गति तथा मनुष्य पर पड़ने वाले प्रभाव का वर्णन किया।

2. गणित- पेशावर के निकट बक्शली नामक स्थान पर उहवनन के दौरान एक हस्तलिखित ग्रंथ प्राप्त हुआ। इस ग्रंथ में गणित के विभिन्न सूत्रों का उल्लेख है। इस ग्रंथ के रचना काल को लेकर विद्वानों में मतभेद है। कुछ विद्वान इसे तीसरी शताब्दी तथा कुछ 9वीं शताब्दी का मानते हैं। इससे इतना सिद्ध होता है कि गुप्त काल के पूर्व गणित विज्ञान में उन्नत थे।

गुप्तकाल में आर्यभट्ट ने अपने ग्रंथ में दशमलव पद्धति का उल्लेख किया उन्होंने अपने ग्रंथ में अंकगणित, बीजगणित तथा ज्यामिति आदि के सिद्धांतों का प्रतिपादन किया था।

3. आयुर्वेद- आयुर्वेद तथा रसायन विज्ञान के क्षेत्र में भी गुप्त काल का योगदान है। नागार्जुन नामक विद्वान ने रस चिकित्सा का आविष्कार किया उन्होंने धातु द्वारा रोग का उपचार करने की प्रणाली का भी अविष्कार किया प्रसिद्ध वेद धन्वंतरी इसी युग में हुए थे।

गुप्त काल में शल्य शास्त्र का ज्ञान चिकित्सकों को था। पशु चिकित्सा के क्षेत्र में काल काव्य का योगदान महत्वपूर्ण है उसने हंसते आयुर्वेद नामक ग्रंथ में हाथियों के विभिन्न रोगों और उनके उपचारों का वर्णन किया था।

4. धातु विज्ञान- धातु विज्ञान के क्षेत्र में गुप्तकालीन कोई ग्रंथ प्राप्त नहीं हुआ है। नागार्जुन धातु विज्ञान के ज्ञाता थे। उन्होंने यह प्रमाणित किया कि धातुओं के रासायनिक प्रयोगों से रोगों का निवारण किया जा सकता है। गुप्त काल में धातु विज्ञान उन्नत स्थिति में था। इसका प्रमाण है, दिल्ली के निकट महारानी का लौह स्तंभ। इस लौह स्तंभ से प्रमाणित होता है कि गुप्त काल में धातु गलाने तथा ढालने का कार्य अत्यंत वैज्ञानिक ढंग से होता था। इस युग में धातु की मूर्तियों का निर्माण धातु विज्ञान की उन्नति का परिचायक है।

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