सामाजिक परिवर्तन का अर्थ, परिभाषा, प्रकार, विशेषताएं, कारण, सिद्धांत

सामाजिक परिवर्तन क्या है | What is Social Change

सामाजिक परिवर्तन समाज में होने वाला परिवर्तन ही सामाजिक परिवर्तन कहलाता है।

सामाजिक परिवर्तन का अर्थ | Meaning of Social Change

सामाजिक परिवर्तन दो शब्दों से मिलकर बना है सामाजिक और परिवर्तनसामाजिक शब्द का आशय है "समाज" से संबंधित, और परिवर्तन का आशय है “भिन्नता का होना”। इस प्रकार सामाजिक परिवर्तन से आशय सामाजिक संबंधों में परिवर्तन या भिन्नता उत्पन्न होने से है।

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सामाजिक परिवर्तन एक प्रक्रिया है और स्थान और परिस्थिति के अनुसार इसकी गति तेज या कम होती रहती है। शाब्दिक दृष्टि से समाज में होने वाले परिवर्तन सामाजिक परिवर्तन कहलाता है।

सामाजिक परिवर्तन की परिभाषा | Definition of Social Change

मैकाइवर और पेज के अनुसार:- "सामाजिक संबंधों में होने वाले परिवर्तन को ही सामाजिक परिवर्तन कहते हैं।"

किंग्सले डेविस के अनुसार:- “सामाजिक संगठन अर्थात समाज के ढांचे और कार्यों में उत्पन्न होते हैं।”

गिलिन और गिलिन के अनुसार:- “सामाजिक परिवर्तन का अर्थ जीवन जीवन में होने वाले परिवर्तन है, चाहे वह परिवर्तन भौगोलिक दशाओं के कारण हो, सांस्कृतिक उपकरणों, जनसंख्या के स्वरूप अथवा विभिन्न सिद्धांतों के कारण हो या एक समूह में अविष्कार तथा संस्कृति के प्रसार से उत्पन्न हो।”

एम. डी. जेन्सन  के अनुसार:- “इनका कहना है कि, सामाजिक परिवर्तन व्यक्तियों के कार्य एवं विचार करने के तरीकों में उत्पन्न होने वाला परिवर्तन को हम सामाजिक परिवर्तन कह सकते हैं।”

जोंस के अनुसार:- “सामाजिक प्रक्रियाओं, सामाजिक प्रतिमानों, सामाजिक संगठन के किसी अंग में अंतर या रूपांतर का वर्णन करता है।”

सामाजिक परिवर्तन के प्रकार | सामाजिक परिवर्तन के प्रकार लिखो 

1. उद्विकास

डार्विन ने प्राणी की शारीरिक रचना में होने वाले परिवर्तन को उद्विकास का नाम दिया। इसी के आधार पर स्पेंसर ने सामाजिक जीवन में होने वाले परिवर्तन को सामाजिक उद्विकास का है। उद्विकास वह परिवर्तन है जो किसी वस्तु के आंतरिक तत्व के कारण एक क्रमिक प्रक्रिया के द्वारा उस वस्तु का रूप बदल लेता है। इस प्रकार ऐसे परिवर्तन एक निश्चित दिशा की ओर अवश्य होते हैं। लेकिन यह नहीं कहा जा सकता है कि वह समाज के लिए अच्छे होंगे या बुरे। ऐसे परिवर्तन आरंभ में बहुत अनिश्चित प्रकृति के होते हैं, लेकिन धीरे-धीरे उनका रूप स्पष्ट होने लगता है। उदाहरण के लिए विवाह जैसी कोई संस्था विद्यमान नहीं थी सभी स्त्री-पुरुष के संबंध स्वतंत्र थे। दूसरे स्तर पर एक एक स्त्री ने अनेक पुरुषों से विवाह संबंध स्थापित करके परिवार की स्थापना करना आरंभ की। समाज में पुरुषों की सामाजिक शक्ति अधिक हो जाने के बाद बहू पत्नी विवाह का आरंभ हुआ। जबकि बाद में नैतिक नियमों का प्रभाव बढ़ने से एक विवाह को प्रधानता दी जाने लगी। यह विवाह संस्था में होने वाला परिवर्तन है जिसे उद्विकास कहा जाता है।

2. प्रगति

प्रगति सामाजिक परिवर्तन का ही एक रूप है जो समाज द्वारा मान्यता प्राप्त लक्ष्यों की दिशा में होता है। यदि कोई परिवर्तन लक्ष्य की ओर है लेकिन वह लक्ष्य समाज विरोधी हो तो ऐसे परिवर्तन को प्रगति नहीं कहा जा सकता। प्रगति का तात्पर्य अच्छाई की और होने वाले इस परिवर्तन से है जो सामाजिक मूल्यों के अनुसार होता है। प्रगति के रूप में होने वाले परिवर्तन गुणात्मक भी हो सकते हैं और परिणात्मक भी। वर्तमान युग में प्रगति का संबंध मुख्यतः इन परिवर्तनों से है जो समाज संस्कृति और अर्थव्यवस्था में योजनाबद्ध रूप से लाए जाते हैं।

3. विकास

विकास के रूप में होने वाले परिवर्तन उद्विकास तथा प्रगति से अलग होता है। सरल शब्दों में कहा जा सकता है कि नई प्रौद्योगिकी की सहायता से जब हम उत्पादन और आर्थिक विकास की दिशा में आगे बढ़ते हैं तब ऐसे परिवर्तन को विकास कहा जाता है। समाजशास्त्रीय अर्थ में विकास शब्द का प्रयोग एक ऐसी दशा के लिए किया जाता है जिसमें मनुष्य अपने ज्ञान और कुशलता के द्वारा प्राकृतिक पर्यावरण के प्रभाव से छुटकारा पाने में सफल हो जाता है। विकास से संबंधित परिवर्तन मनुष्य रूप से आर्थिक वृद्धि की दशा को स्पष्ट करते हैं।

4. क्रांति

सामाजिक परिवर्तन का एक विशेष प्रकार क्रांति के रूप में हमारे सामने आता है। क्रांति की कोई सर्वमान्य परिभाषा देश सकना बहुत कठिन है। इसका कारण यह है कि कुछ लेखक केवल राजनीतिक व्यवस्था में होने वाले परिवर्तन को कांति कहते हैं जबकि अनेक विद्वानों ने क्रांति को एक ऐसा परिवर्तन बताया है जो समाज की राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक संपूर्ण व्यवस्था को बदल देता है। क्रांति अचानक रूप से होने वाला वह परिवर्तन है जिसके द्वारा एक विशेष समय में स्थापित राजनीतिक व्यवस्था को बलपूर्वक बदल कर एक नए कानूनी और सामाजिक व्यवस्था की स्थापना कर देती है।

5. अनुकूलन

सामाजिक परिवर्तन का एक विशेष रूप अनुकूलन की प्रक्रिया के रूप में देखने को मिलता है। यह वह परिवर्तन है जिसमें एक दूसरे से अलग संस्कृतियों और धर्मों भाषाओं और क्षेत्रों के लोग अपने आपको बदली हुई दशाओं के अनुरूप बनाने का प्रयत्न करते हैं। सच तो यह है कि मानव सभ्यता का संपूर्ण इतिहास अनुकूल के अनुरूप में होने वाले परिवर्तन का ही इतिहास रहा है। आसभ्यता के निम्न स्तर से लेकर आज तक विभिन्न समूह अपनी प्राकृतिक, संस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक दिशाओं के अनुकूल करते रहते हैं। जिस तरह विभिन्न जीव धारियों द्वारा अपने पर्यावरण से अनुकूल ना होकर पाने पर उनकी मृत्यु हो जाती है, उसी प्रकार समाज में उन लोगों के व्यक्तित्व का समुचित विकास नहीं हो पाता जो अपने सामाजिक और सांस्कृतिक पर्यावरण से अनुकूल नहीं कर पाते। समाज में सहयोग तथा अपने में अलग संस्कृति को अपनाना अनुकूलन के ही अन्य रूप है।

सामाजिक परिवर्तन की विशेषताएं | सामाजिक परिवर्तन की कोई चार विशेषताएं लिखिए

Samajik parivartan ki Vishestayen:-

1. सामाजिक परिवर्तन की प्रकृति सामाजिक होती है- इसका अर्थ है कि सामाजिक परिवर्तन का संबंध किसी व्यक्ति के विशेष सम्मुख विशेष संस्था, जाति, प्रजाति तथा समिति में होने वाले परिवर्तन से नहीं है। इस प्रकार का परिवर्तन व्यक्तिवाद प्राकृतिक का होता है, जबकि सामाजिक परिवर्तन का संबंध संपूर्ण समुदाय एवं समाज में होने वाले परिवर्तन से है। इस प्रकार सामाजिक परिवर्तन की प्रकृति सामाजिक है ना कि व्यक्तिक। समाज की किसी एक इकाई में होने वाले परिवर्तन को सामाजिक परिवर्तन नहीं कहा जा सकता।

2. सामाजिक परिवर्तन एक सार्वभौमिक घटना है:- सामाजिक परिवर्तन एक सर्वव्यापी घटना है, यह सभी समाजों एवं सभी कालों में होता लगता है, मानव समाज के उत्पत्ति काल से लेकर आज तक अनेक परिवर्तन हुए हैं और आगे भी होते रहेंगे। मानव इतिहास में कोई भी ऐसा समाज नहीं रहा जो परिवर्तन के दौर से न गुजरा हो। कुछ समाज में परिवर्तन की गति इतनी धीमी है कि कई विद्वान तो यह कहने की भूल कर बैठे की इनमें तो परिवर्तन ही नहीं होता है।

3. सामाजिक परिवर्तन स्वाभाविक है:- प्रतीक समाज में अनिवार्य रूप से परिवर्तन दिखाई देता है और यह एक स्वाभाविक घटना है। परिवर्तन प्रकृति का नियम है और समाज भी प्रकृति का एक अंग होने के कारण परिवर्तन से कैसे बच सकता है। कई बार हम परिवर्तन का विरोध करते हैं, फिर भी परिवर्तन को रोक नहीं पाते। कभी यह परिवर्तन जानबूझकर नियोजित रूप में लाए जाते हैं तो कभी अपने आप ही उत्पन्न हो जाते हैं। मानव की आवश्यकताओं इच्छाओं एवं परिस्थितियों में परिवर्तन होने पर समाज में भी परिवर्तन होता है। मानव बदली हुई स्थिति में अनुकूलन करने के लिए कभी-कभी तो परिवर्तन का इंतजार तक करता है।

4. सामाजिक परिवर्तन की गति असमान है:- सामाजिक परिवर्तन सभी समाजों में पाया जाता है। फिर भी सभी समाजों में इसकी गति असमान होती है। पूर्वी देशों के समाजों की तुलना में आधुनिक एवं पश्चिमी समाजों में परिवर्तन तीव्र गति से होता है। ‌ एक ही समाज के विभिन्न अंगों में भी परिवर्तन की गति में असमानता पाई जाती है। भारत में ग्रामीण समाजों की तुलना में नगरों में परिवर्तन शीघ्र आते हैं। परिवर्तन की आसमान गति होने के कारण यह है कि प्रत्येक समाज में परिवर्तन लाने वाले कारक अन्य समाजों में परिवर्तन उत्पन्न करने वाले कारकों से अलग होते हैं। हम सामाजिक परिवर्तन की गति का अनुमान समाजों की परस्पर तुलना करके ही लगा सकते हैं।

5. सामाजिक परिवर्तन एक जटिल तथ्य है:- सामाजिक परिवर्तन का संबंध गुणात्मक परिवर्तनों से है, जिनकी माप-तौल संभव नहीं है। हम किसी भौतिक वस्तु और भौतिक संस्कृति में होने वाले परिवर्तनों को मीटर या किलोमीटर की भाषा में माफ नहीं सकते। सरलता से ऐसे परिवर्तन का रूप भी समझ में नहीं आता। सामाजिक परिवर्तन में वृद्धि के साथ-साथ उनकी जटिलता में भी वृद्धि होती जाती है।

6. सामाजिक परिवर्तन की भविष्यवाणी नहीं की जा सकती है:- सामाजिक परिवर्तन के बारे में निश्चित रूप से पूर्व अनुमान लगाना कठिन है। अतः उसके बारे में भविष्यवाणी नहीं की जा सकती है। यह कहना कठिन है कि औद्योगिकरण एवं नगरीकरण के कारण भारत में जाति प्रथा, संयुक्त परिवार प्रणाली एवं विवाह में कौन-कौन से परिवर्तन आएंगे यह बताना भी अत्यंत कठिन है। आगे चलकर लोगों के विचारों, विश्वासों, मूल्यों, आदर्शों आदि में किस प्रकार के परिवर्तन आएंगे, इसका तात्पर्य यह नहीं है कि हम सामाजिक परिवर्तन के बारे में बिल्कुल ही अनुमान नहीं लगा सकते हैं। सामाजिक परिवर्तन का कोई नियम ही नहीं है इसका सिर्फ यही अर्थ है कि कई बार आकस्मिक कारणों से भी परिवर्तन होते हैं, जिनके बारे में सोचा भी नहीं जा सकता। हम जानते हैं कि औद्योगिकरण एवं नगरीकरण भविष्य में जाति प्रथा एवं संयुक्त परिवार को विघटित कर देंगे, अपराधों में वृद्धि होगी और शिक्षा एवं नवीन कानूनों के प्रभाव के कारण भारत में छुआछूत कम और धीरे-धीरे समाप्त हो जाएगी। फिर भी किस प्रकार के परिवर्तन आएंगे और इनका स्वरूप क्या होगा इसके बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता है।

सामाजिक परिवर्तन के कारण | सामाजिक परिवर्तन के कारक

किसी भी समाज में परिवर्तन बिना कारण नहीं होता बल्कि सामाजिक परिवर्तन के पीछे कोई ना कोई कारण अवश्य होते हैं यह कारण एक न होकर अनेक होते हैं। इन्हीं एक या अनेक कारणों से सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया निरंतर क्रियाशील रहती है। सामाजिक परिवर्तन के सभी कारण इस प्रकार से हैं_

1. प्रकृति किया भौगोलिक कारक- समाज के तथ्यों में प्राकृतिक और भौगोलिक कारकों के प्रभाव के कारण भी परिवर्तन होता है। सामाजिक परिवर्तन प्राकृतिक घटनाओं और भौगोलिक दशाओं के कारण भी होता है। मानव निरंतर प्रयत्नशील रहता है अर्थात हर समय कुछ ना कुछ प्रयत्न करते रहता है। प्रकृति पर नियंत्रण करे किंतु ज्ञान विज्ञान की विधि होने के पश्चात भी मानव प्राकृतिक और भौगोलिक घटनाओं पर पूर्ण नियंत्रण नहीं कर पाया। इसके फलस्वरूप प्राकृतिक घटनाएं और भौगोलिक दशाएं अपने विकराल स्वरूप और क्रूर घटनाओं के द्वारा मान्य समाज की विभिन्न योजनाओं को तहस-नहस करके समाज को परिवर्तित करती रहती है।

इतिहास इस बात का प्रमाण है कि जिस प्रकार से भौगोलिक पर्यावरण और भौतिक तत्वों द्वारा मानव का रहन-सहन, खान-पान, वेश-भूषा, आचार विचार, आदर्श प्रतिमान तथा सामाजिक समिति और संस्थाओं की संरचना निश्चित होती है। उसी प्रकार इन भौगोलिक पर्यावरण और भौतिक तत्वों के विकराल स्वरूप और रूद्र प्रकृति के फलस्वरुप एक क्षण में सामाजिक जीवन के विभिन्न पक्षों में परिवर्तन हो जाते हैं। ऋतु परिवर्तन, अनावश्यक बाढ़, तूफान, भूकंप, अकाल, महामारी आदि भयंकर प्रकृतिक और भौगोलिक घटनाओं के कारण सामाजिक व्यवस्था और संगठन शीघ्र ही अस्त-व्यस्त हो जाता है।

उदाहरण के लिए बंगाल बिहार का भीषण अकाल, गुजरात के भुज का भूचाल, उड़ीसा के भयंकर तूफान ने तत्कालीन समाज के स्वरूप को पूर्णता परिवर्तित कर दिया। यहां तक कि सामाजिक जीवन अस्त व्यस्त हो गया था। जिसके कारण संपूर्ण सामाजिक संरचना एवं सामाजिक कृतियों में अत्यधिक परिवर्तन हुआ है। अतः इस स्पष्ट है कि प्राकृतिक और भौगोलिक कारकों के फल स्वरुप सामाजिक परिवर्तन होता है। भूगोल शास्त्रियों का तो यह कहना है कि सामाजिक परिवर्तन पूर्णता प्राकृतिक और भौगोलिक कारकों पर ही आधारित होता है।

2. जैविक कारक- सामाजिक परिवर्तन विभिन्न जैविकीय तथ्यों के कारण भी होता है। जीवशास्त्रियों ने अनेक प्राणीशास्त्रीय कारकों को ही सामाजिक परिवर्तन का प्रमुख कारण माना है। अक्सर एक समाज के अंतर्गत निवास करने वाले प्रजातियों के शारीरिक लक्षणों या विशेषताओं में अचानक होने वाले परिवर्तन के फलस्वरुप समाज की संपूर्ण संरचना परिवर्तित हो जाती है। यदि वंशानुक्रम के परिणाम स्वरूप जनसंख्या को निर्बल और दुर्बल संतान प्राप्ति होती है, तो माता-पिता के वाहक गुणों के नवीन जोड़ी से उत्पन्न होती है।

माता-पिता से भिन्न होती है इस विभिन्नता के कारण नई पीढ़ी के अनुक्रम अनुभव भी नए होते हैं, यह नवीनता सामाजिक परिवर्तन के लिए जिम्मेदार होती है, इसी प्रकार जन्म दर और मृत्यु दर का उतार-चढ़ाव भी सामाजिक परिवर्तन के प्रति उत्तरदाई होता है। समाज में स्त्री-पुरुष के अनुपात में असमानताओं के फलस्वरुप भी सामाजिक मूल्यों एवं सामाजिक जीवन प्रतिमान भी परिवर्तन होता है। जिस समाज में स्त्रियों की संख्या पुरुषों से अधिक होती है, उस समाज में बहू पत्नी विवाह और जिस समाज में पुरुषों की संख्या स्त्रियों की संख्या से अधिक होती है उस समाज में बहुपति विवाह का प्रचलन होता है।

फलस्वरुप नवीन सामाजिक मूल्यों का जन्म होता है। पुरुषों की स्थिति में परिवर्तन होता है जिससे सामाजिक ढांचे में परिवर्तन उपस्थित होता है। जहां कहीं भी जिस समाज में प्रजातीय मिश्रण हुए हैं उस समाज का रूप पूर्णतया परिवर्तित हुआ है। प्रजातीय मिश्रण मात्र सांस्कृतिक तथ्यों को ही परिवर्तित नहीं करते। बल्कि इनके द्वारा समाज के प्रचलित सामाजिक मूल्य और सामाजिक प्रतिमान तथा नैतिक विचार भी परिवर्तित हो जाते हैं। इस प्रकार स्पष्ट होता है कि सामाजिक परिवर्तन प्राणी शास्त्रीय और जैविकीय दशाओं के आधार पर भी होता है।

3. जनसंख्यात्मक कारक- जनसंख्यात्मक कारकों द्वारा भी सामाजिक परिवर्तन होता है। जनसंख्या का आकार, प्रकार घनत्व का उतार-चढ़ाव जनसंख्या की गतिशीलता बनावट तथा वितरण समाज में परिवर्तन लाते हैं। जन्म दर की अधिकता के फल स्वरुप जनसंख्या में अत्यधिक वृद्धि होती है जिससे समाज में जनसंख्या वृद्धि की स्थिति उत्पन्न होती है। ऐसी स्थिति में निर्धनता, भुखमरी, भिक्षावृत्ति, वेश्यावृत्ति, अपराध, शिशु हत्या आदि समस्याओं का जन्म होता है।

सामाजिक संरचना तथा समाज की कोई प्रणालियां और मूल्यों को पूर्णता प्रभावित करती हैं जिनके कारण समाज में परिवर्तन होता है। जहां जनसंख्या वृद्धि से समाज में अनेक समस्याएं उत्पन्न होती है वहां कम जनसंख्या होने पर समाज कठिन ता से प्रसिद्ध हो पाता है। जनसंख्या की अधिकता समाज की आर्थिक व्यवस्था को प्रभावित करती है तथा युद्ध का कारण भी बनती है। अनेक प्रकार के संघर्ष को जन्म देती है। जनसंख्या वृद्धि वाले राष्ट्र शक्तिशाली तथा कम जनसंख्या वाले राष्ट्र निर्बल होते हैं। जनसंख्या का आकार कभी-कभी समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन करने में सक्षम होता है।

4. आर्थिक कारक- सामाजिक परिवर्तन के क्षेत्र में आर्थिक कारकों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। विश्व में प्रत्येक मानव की रोजी-रोटी और मकान की आवश्यकता है जिन्हें जीवन की मूलभूत आवश्यकताएं कहा जाता है। इसकी पूर्ति मानव आर्थिक आधार पर ही करता है। अतः प्रत्येक व्यक्ति अपनी आर्थिक स्थिति को बेहतर करने के लिए कठिन से कठिन प्रयास करता है। व्यक्ति अपनी विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के उद्देश्य से ही विभिन्न सामाजिक संस्थाओं, समितियों तथा धर्म कला साहित्य भाषा रहन-सहन आदि के विभिन्न स्वरूपों को विकसित किया है। जिनका मूल स्रोत समाज की आर्थिक व्यवस्था ही रही है।

यहां तक कि समाज की संरचना और कार्यों का निर्धारण भी आर्थिक आधार पर ही होता है। समाज में जो भी परिवर्तन होता है वह आर्थिक कारणों से होता है। इसलिए अधिकांश विद्वानों का मत है कि सामाजिक परिवर्तन का मूल कारण आर्थिक आधार ही है।

5. प्रौद्योगिक कारक- समाज की संपूर्ण सामाजिक संरचना आज योगी की यंत्र कला पर आधारित है। मशीनीकरण के साथ-साथ सामाजिक जीवन भी मशीनीकरण होता जा रहा है। जब कभी भी प्रौद्योगिकी क्षेत्र में परिवर्तन होता है तो उसके प्रभाव में सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक तथा वैधानिक दशाओं में आवश्य परिवर्तन होता है। व्हाट्सएप से चलने वाले इंजनों का आविष्कार हो जाने से सामाजिक जीवन से राजनीतिक जीवन तक में इतने परिवर्तन हुए हैं, जिनकी कल्पना स्वयं आविष्कार करने वाले ने भी ना की होगी।

प्रौद्योगिकी के विकास के फल स्वरुप विभिन्न प्रकार की मशीनों का आविष्कार हुआ तथा बड़े पैमाने पर उत्पादन होने लगा और जीवन मशीनीकृत हो गया। श्रम विभाजन और विशेष ई करण के प्रदुर्भाव के फल स्वरुप व्यापार और वाणिज्य में प्रगति हुई और जीवन का स्तर परिवर्तित हो गया। परिणाम स्वरूप परिवार में परिवर्तन हुआ तथा स्त्रियों का कार्य क्षेत्र बदल गया। अतः सामाजिक परिवर्तन का एक महत्वपूर्ण कारक प्रयोग की है।

6. सांस्कृतिक कारक- समाज के अंतर्गत विभिन्न सांस्कृतिक तत्व भी सामाजिक परिवर्तन के लिए उत्तरदायी है। सांस्कृति के अंतर्गत धर्म, विचार, नैतिक, विश्वास, प्रथाएं, परंपराएं, लोकाचार एवं संस्थाओं को सम्मिलित किया जाता है। इन विभिन्न सांस्कृतिक तत्वों में परिवर्तन होने के कारण सामाजिक परिवर्तन होता है। इस प्रकार सामाजिक परिवर्तन में सांस्कृतिक तत्वों की प्रमुख भूमिका होती है। सांस्कृतिक तत्वों या सांस्कृतिक दिशाओं जैसे सांस्कृतिक संकुल, सांस्कृतिक संघर्ष, सांस्कृतिक विडंबना, संस्कृतिकरण आदि के फलस्वरुप भी सांस्कृतिक परिवर्तन होता है।

मैक्स वेबर के अनुसार सांस्कृतिक सामाजिक परिवर्तन का प्रत्यक्ष कारण ही नहीं बल्कि अप्रत्यक्ष कारण भी है। क्योंकि यह उपयोग और उपभोग की वस्तुओं को प्रभावित करके भी सामाजिक तथ्यों को परिवर्तित करता है। सांस्कृतिक कारक मात्र प्रतियोगी की परिवर्तन के ही अनुरूप नहीं चलता बल्कि उसके स्थान में प्रयोग किए परिवर्तन की दशा और प्रकृति को भी प्रभावित करता है। इस प्रकार सांस्कृतिक सामाजिक परिवर्तन के निर्देशन का भी कार्य करती है।

7. मनोवैज्ञानिक कारक- सामाजिक प्रगति तथा सभ्यता के विकास के साथ-साथ सामाजिक परिवर्तन में मनोवैज्ञानिक कारकों का योगदान भी बढ़ता जा रहा है। आज के जटिल समाज तथा सामाजिक संरचना एवं सामाजिक जीवन के ढंगों में मनोवैज्ञानिक कारणों से भी अत्यधिक परिवर्तन होता है। सभ्यता का विकास चरम सीमा तक पहुंचने तथा संबंधों में दिखाओ ओपन बनावटी संबंधों का होना आदि के कारण मानसिक तनाव और संघर्ष बढ़ता है। जिससे व्यक्ति ना तो समाज के साथ अनुकूल कर पाता है और ना ही उसके पद और भूमिका में सामंजस्य स्थापित हो पाता है। इसी प्रकार प्राचीन परंपराओं और प्रथाओं के रक्षा में क्रियाशील रहते हैं, जबकि नवयुवक लकीर के फकीर नहीं बनना चाहते, बल्कि नवीन सामाजिक व्यवस्थाओं और मूल्यों में विश्वास करते हैं तथा उन्हें अपनाते हैं जिससे नवीन सामाजिक मूल्यों एवं आदर्शों का जन्म होता है तथा सामाजिक संरचना और कार्यों में परिवर्तन होता है।

सामाजिक जीवन को सुखी बनाने या सुख में जीवन यापन करने के उद्देश्य से भी आज व्यक्ति अनेक प्रकार के नवीन क्रियाकलापों को करता है। इससे नवीन व्यवहारों तथा कार्यों में विधि होती है। फल स्वरुप सामाजिक परिवर्तन उपस्थित होता है। इन्हीं मनोवैज्ञानिक कारकों से आज भारतीय समाज की अनेक प्राचीन प्रथाओं परंपराओं तथा वैवाहिक प्रतिबंधों एवं सामाजिक निषेध में क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ है और सामाजिक व्यवस्था में अधिक परिवर्तन हुआ है।

8. औद्योगिकीकरण एवं नगरीकरण- औद्योगिकीकरण और नगरीकरण की तीव्र प्रक्रिया के फल स्वरुप भी अत्यधिक तीव्र गति से सामाजिक परिवर्तन होता है। आज सामाजिक परिवर्तन के क्षेत्र में इन दोनों प्रक्रियाओं की महत्वपूर्ण भूमिका देखने को मिलती है। औद्योगिकीकरण और नगरीकरण की प्रक्रिया के परिणाम स्वरुप जहां एक और उद्योग धंधों और नगरों का विकास होकर विकासवादी तथा प्रगति के रूप में सामाजिक परिवर्तन हुआ है वहीं दूसरी ओर पारिवारिक संरचना और संबंधों में भी अत्यधिक परिवर्तन हुआ है। स्त्री पुरुष के कार्य क्षेत्रों, अधिकारों दायित्वों यहां तक कि संबंधों में भी परिवर्तन पाया जाता है।

आज स्त्री मात्र पति सेविका और गृहणी ही नहीं रह गई है बल्कि जीवन सहयोगनी बन गई है। इस प्रकार प्राचीन समाजिक व्यवस्था आज पूर्णता परिवर्तित होती जा रही है। सामाजिक गतिशीलता में औद्योगिकरण के कारण तीव्र वृद्धि होने से नगर एवं ग्रामीणों की मूलभूत विशेषताएं परिवर्तित होती जा रही। इस प्रकार औद्योगिकीकरण की तीव्र प्रक्रिया के परिणाम स्वरूप समाज में अनेक समस्याओं का जन्म हुआ। समाज को आज अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है जिसके कारण नवीन आदर्श प्रतिमान तथा सामाजिक मूल्यों का जन्म होता है और समाज में परिवर्तन होता है। यही कारण है कि सामाजिक परिवर्तन की तीव्र प्रक्रिया औद्योगिकीकरण के प्रारंभ से लेकर आज तक निरंतर क्रियाशील है।

9. आधुनिकीकरण- आज आधुनिकीकरण की तीव्र प्रक्रिया के फल स्वरुप अत्यधिक सामाजिक परिवर्तन हो रहा है। आधुनिकीकरण एक ऐसी प्रवृत्ति है जो प्रत्येक व्यक्ति को व्यवहार के नवीन ढंग को अपनाने के लिए प्रेरित करती है। फल स्वरुप आज समाज का प्रत्येक व्यक्ति बिना सोचे विचारे आधुनिक बनना चाहता है, नवीन ढंग को अपनाकर रहना चाहता है। फलस्वरुप जीवन यापन के ढंग में मानव के कार्य और व्यवहार में निरंतर परिवर्तन होता जाता है। रहन-सहन, खान-पान, वेशभूषा तथा सामाजिक व्यवहार  और विचारों तक में अत्यधिक परिवर्तन लाने का कार्य आज आधुनिकीकरण की प्रक्रिया ने किया है।

10. सामाजिक आंदोलन- सामाजिक आंदोलन भी सामाजिक परिवर्तन के प्रमुख कारक होते हैं। किसी भी समाज में जब कभी भी कोई आंदोलन हुआ है तो निश्चित रूप से उसके परिणाम स्वरुप कुछ ना कुछ परिवर्तन अवश्य हुए हैं। सामाजिक आंदोलन अनेक स्वरूपों में किए जाते रहे हैं। भारत में क्रांतिकारी आंदोलन भी हुए हैं और सुधारवादी आंदोलन भी हुए हैं। इन दोनों प्रकार के आंदोलनों के फल स्वरुप समाज में सामाजिक परिवर्तन हुए हैं, सुधारवादी आंदोलन के कारण भारतीय समाज में अत्यधिक सुधार हुआ है। अनेक कुरीतियों का अंत हो गया,  और लोगों को समान अधिकार मिले। स्त्रियों की स्थिति में व्यापक परिवर्तन हुआ। इन सब परिवर्तनों में सुधार वादियों जैसे- राजा मोहन राय, दयानंद सरस्वती, एनी बेसेंट, ईश्वर चंद्र विद्यासागर का भी योगदान रहा है। इस प्रकार स्पष्ट है कि सामाजिक आंदोलन सामाजिक परिवर्तन का एक महत्वपूर्ण कारक है।

सामाजिक परिवर्तन के सिद्धांत | principles of social change

सामाजिक परिवर्तन की व्याख्या कुछ विद्वानों ने सिद्धांतों के प्रतिपादन द्वारा की है। उनका विश्वास है कि समाज में परिवर्तन इन्हीं नियमों एवं सिद्धांतों के अनुसार होते हैं। सामाजिक परिवर्तन को स्पष्ट करने के लिए जितने भी सिद्धांत प्रस्तुत किए गए हैं, हम उन्हें प्रमुख रूप से दो भागों में बांट सकते हैं— चक्रीय एवं रेखीय सिद्धांत। इन दोनों ही प्रकार के सिद्धांतों को देखेंगे।

सामाजिक परिवर्तन के चक्रीय सिद्धांत | cyclical theory of social change

हम जहां से प्रारंभ होते हैं, घूम फिर कर पुनः वही पहुंच जाते हैं। इस प्रकार के विचारों की प्रेरणा विद्वानों को शायद प्रकृति से मिली होगी। प्रकृति में हम देखते हैं कि ऋतु का एक चक्र चलता है और सर्दी, गर्मी एवं वर्षा की ॠतुएं एक के बाद एक आती जाती है। इसी प्रकार से रात के बाद दिन एवं दिन के बाद रात का चक्र भी चलता रहता है। पुरानी भी जन्म और मृत्यु के दौर से गुजरते रहते हैं। हम जन्म लेते हैं, युवा होते हैं, वृद्ध होते हैं और मर जाते हैं। मर कर फिर जन्म लेते हैं और पुण: वही क्रम दोहराते रहते हैं।

परिवर्तन के इस चक्र को कई विद्वानों ने समाज पर भी लागू किया और कहा कि परिवार समाज और सभ्यताएं उत्थान और पतन के चक्र से गुजरते हैं। इस प्रकार चक्र सिद्धांतकार सामाजिक परिवर्तन को जीवन चक्र के रूप में देखते हैं। चक्रीय सिद्धांत कारों में स्पेंग्लर, टॉयनबी, पेरेटो एवं सोरोकिन प्रमुख हैं हम यहां उनके सिद्धांतों के बारे में जानेंगे।

  1. स्पेंग्लर का सिद्धांत- समाज परिवर्तन के बारे में जर्मन विद्वान ओस्वाल्ड स्पेंग्लर ने 1918 में अपनी पुस्तक ‘The Decline of The West’ में अपना चक्र सिद्धांत प्रस्तुत किया। इस पुस्तक में उन्होंने सामाजिक परिवर्तन के उद्विकास सिद्धांतों की आलोचना की और कहा कि परिवर्तन कभी भी एक सीधी रेखा में नहीं होता है। सामाजिक परिवर्तन का एक चक्र चलता है, हम जहां से प्रारंभ होते हैं घूम कर पुनः वही पहुंच जाते हैं। जैसे मनुष्य जन्म लेता है, युवा होता है, वृद्ध होता है और मर जाता है  फिर जन्म लेता है। यही चक्र मानव समाज एवं सभ्यताओं में भी पाया जाता है। मानव की सभ्यता एवं संस्कृति भी उत्थान और पतन निर्माण और विनाश के चक्र से गुजरती है। यह भी मानव शरीर की तरह जन्म विकास और मृत्यु को प्राप्त होती है।

  1. टॉयनबी का सिद्धांत- टॉयनबी एक अंग्रेज इतिहासकार थे। उन्होंने विश्व की 21 सभ्यताओं का अध्ययन किया था और अपनी पुस्तक ‘A Study of History’ में सामाजिक परिवर्तन का अपना सिद्धांत प्रस्तुत किया। विभिन्न सभ्यताओं का अध्ययन करने के आपने सभ्यताओं के विकास का एक संबंध में प्रतिमान ढूंढा और सिद्धांत का निर्माण किया। टॉयनबी के सिद्धांतों को चुनौतियां एवं प्रत्युत्तर का सिद्धांत भी कहते हैं। प्रत्येक सभ्यता को प्रारंभ में प्राकृतिक एवं मानव द्वारा चुनौती दी जाती है। इस चुनौती का सामना करने के लिए व्यक्ति को अनुकूलन की आवश्यकता होती है। व्यक्ति इस चुनौती के प्रत्युत्तर में भी सभ्यता व संस्कृति का निर्माण करता है। इसके बाद भौगोलिक चुनाव क्योंकि स्थान पर सामाजिक चुनौतियां दी जाती है। यह चुनौतियां समाज की भीतरी समस्याओं के रूप में समाजों द्वारा दी जाती है। जो समाज इन चुनौतियों का सामना सफलतापूर्वक कर लेता है वह जीवित रहता है और जो ऐसा नहीं कर पाता वह नष्ट हो जाता है। इस प्रकार एक समाज निर्माण एवं विनाश तथा संगठन एवं विघटन के दौर से गुजरता है।

  1. पेरेटो का सिद्धांत- विल्फ्रेड पेरेटो ने सामाजिक परिवर्तन का चक्र सिद्धांत जिसे ‘अभिजात वर्ग के परिभ्रमण का सिद्धांत’ का प्रतिपादन अपनी पुस्तक ‘Mind and Society’ में किया। उन्होंने सामाजिक परिवर्तन को वर्ग व्यवस्था में होने वाले चक्रीय परिवर्तनों के आधार पर समझाया है। इनका मत है कि प्रत्येक समाज में हमें 2 वर्ग दिखाई देते हैं उच्च और निम्न वर्ग। यह दोनों वर्क इस थी और ना ही हैं लेकिन इनमें परिवर्तन का चक्रीय क्रम पाया जाता है। निम्न वर्ग के व्यक्ति अपने गुणों एवं कुशलता में वृद्धि करके अभिजात वर्ग में सम्मिलित होते हैं। अभिजात वर्ग के लोगों की कुशलता एवं योग्यता में धीरे-धीरे कमी होने लगती है। और ये अपने गुणों को खो देते हैं। इस प्रकार वे निम्न वर्ग की ओर बढ़ते हैं। उचिया निम्न वर्ग में उनके रिक्त स्थान को भरने के लिए निम्न वर्ग में जो व्यक्ति बुद्धिमान, चरित्रवान, कुशल, योग्य एवं साहसी होते हैं वे ऊपर की ओर बढ़ते हैं। इस प्रकार उच्च वर्ग से निम्न वर्ग में और निम्न वर्ग से उच्च वर्ग में जाने की प्रक्रिया चलती रहती है। इसलिए इसे सामाजिक परिवर्तन का चक्रीय अथवा अभिजात वर्ग के परिभ्रमण का सिद्धांत कहते हैं।

  1. सोरोकिन का सांस्कृतिक गतिशीलता का सिद्धांत- इन्होंने अपनी पुस्तक ‘Social and Cultural Dynamics’ में सामाजिक परिवर्तन का सांस्कृतिक गतिशीलता का सिद्धांत प्रस्तुत किया। उन्होंने मार्क्स, पेरेटो,  एवं वेबलिन के परिवर्तन संबंधी सिद्धांतों की आलोचना की। उनका मत है कि सामाजिक परिवर्तन उतार-चढ़ाव के रूप में पेंडुलम घड़ी की भांति एक स्थिति से दूसरी स्थिति के बीच होता रहता है। उन्होंने प्रमुख रूप से दो संस्कृतियों भावात्मक एवं चेतनात्मक का उल्लेख किया। जिसमें चेतन आत्मक एवं भावात्मक संस्कृति का मिश्रण होता है उससे आदर्शात्मक संस्कृति कहते हैं। विभिन्न संस्कृतियों के दौर से गुजरने पर समाज में भी परिवर्तन आता है। इन तीनों प्रकार की संस्कृतियों की विशेषताओं का संक्षेप में उल्लेख करेंगे।

  • चेतनात्मक संस्कृति- चेतन आत्मक संस्कृति को हम भौतिक संस्कृति भी कहते हैं। इस संस्कृति का संबंध मानव चेतना अथवा इंद्रियों से होता है, अर्थात इसका ज्ञान हम देखकर, सुंघकर, छूकर करते हैं। ऐसी स्थिति में एनरिक आवश्यकताओं व इच्छाओं की पूर्ति पर अधिक जोर दिया जाता है। इस संस्कृति में मनोवैज्ञानिक अविष्कारों प्रौद्योगिकी, भौतिक वस्तुओं एवं विलास की वस्तुओं का अधिक महत्व होता है।
  • भावात्मक संस्कृति- यह चेतना आत्मक संस्कृति से बिल्कुल अलग होती है। इसका संबंध भावना ईश्वर धर्मात्मा व नैतिकता से होता है। यह संस्कृति अध्यात्मवादी संस्कृति कही जा सकती है। इसमें इंद्रिय सुख के स्थान पर आध्यात्मिक उन्नति, मोक्ष एवं ईश्वर प्राप्ति को अधिक महत्व दिया जाता है।
  • आदर्शात्मक संस्कृति– यह संस्कृति चेतना एवं भावात्मक दोनों का मिश्रण होती है। अतः इसमें दोनों की विशेषताएं पाई जाती है। इसमें धर्म एवं विज्ञान नैतिक एवं आध्यात्मिक सुख दोनों का संतुलन रूप में पाया जाता है। सोरोकिन इस प्रकार की संस्कृति को ही उत्तम मानते हैं। इसलिए इसे आदर्शात्मक संस्कृति कहते हैं।

सामाजिक परिवर्तन के रेखीय सिद्धांत | Linear Theory of Social Change

सामाजिक परिवर्तन के रेखीय सिद्धांतकार उद्विकासवादियों से प्रभावित थे। वे इस बात को नहीं मानते कि परिवर्तन चक्रीय गति से होता है। उनका कहना है कि परिवर्तन सदैव एक सीधी रेखा में नीचे से ऊपर की ओर विभिन्न चरणों में होता है। उद्विकासीय एवं रेखीय सिद्धांतकारों में काम्टे, स्पेंसर, हाॅबहाउस आदि प्रमुख है।

1. अगस्ट काम्टे का सिद्धांत- कॉम्टे ने सामाजिक परिवर्तन का संबंध मानव के बौद्धिक विकास से जोड़ा है उन्होंने बौद्धिक विकास एवं सामाजिक परिवर्तन के तीन स्तर माने हैं।

  • धार्मिक स्तर- समाज की प्राथमिक अवस्था थी जिसमें मानव प्रत्येक घटना को ईश्वर एवं धर्म के संदर्भ में समझने का प्रयत्न करता था। विश्व की सभी क्रियाओं का आधार धर्म और ईश्वर को ही माना गया है। उस समय अलग-अलग स्थानों पर धर्म के विभिन्न रूप जैसे: बहूदेववाद, एकेववाद अथवा प्रकृति पूजा प्रचलित थी।
  • तात्विक स्तर- मानव घटनाओं की व्याख्या उनके गुणों के आधार पर करता था इस अवस्था में मानव का अलौकिक शक्ति में विश्वास कम हुआ और प्राणियों में विद्यमान अमूर्त शक्ति को ही समस्त घटनाओं के लिए उत्तरदाई माना गया।
  • वैज्ञानिक स्तर- मानव संस्कृति घटनाओं की व्याख्या धर्म ईश्वर एवं अलौकिक शक्ति के आधार पर नहीं करता लेकिन वैज्ञानिक नियमों एवं तर्क के आधार पर करता है। वह कार्य और कारण के संबंधों को ज्ञात करने में एवं सिद्धांतों का प्रतिपादन करता है। मानव घटनाओं का अवलोकन कर उनकी तार्किक एवं वैज्ञानिक व्याख्या करके सत्य तक पहुंचने का प्रयास करता है। इस प्रकार चिंतन के विकास के साथ-साथ सामाजिक संरचना संगठन एवं व्यवस्थाओं का भी विकास एवं परिवर्तन हुआ है।

2. स्पेंसर का सिद्धांत- स्पेंसर ने सभी सामाजिक परिवर्तन का उद्विकासीय सिद्धांत प्रस्तुत किया। इन्होंने सामाजिक परिवर्तन को सामाजिक की पर्यावरण के आधार पर प्रकट किया है। स्पेंसर डार्विन के उद्विकास से प्रभावित है। डार्विन ने उद्विकास का सिद्धांत प्रतिपादित किया जिसे इस स्पेंसर ने समाज पर भी लागू किया। डार्विन का कहना है कि जीवो में अस्तित्व के लिए संघर्ष पाया जाता है। इस संघर्ष में वही पुरानी बचे रहते हैं जो शक्तिशाली होते हैं और प्रकृति से अनुकूलन कर लेते हैं। कमजोर इस संघर्ष में समाप्त हो जाते हैं, क्योंकि प्रकृति भी ऐसे जीवों का वरन करती है जो योग्य एवं सक्षम होते हैं। इस सिद्धांत को प्राकृतिक प्रवरण का सिद्धांत कहते हैं। क्योंकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और उसके जन्म और मृत्यु दर पर सामाजिक कार्य को जैसे प्रधान मूल्यों एवं आदर्शों का भी प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है।

स्पेंसर व जीववादियों के सिद्धांतों की अनेक विद्वानों ने यह कह कर आलोचना की कि मानव समाज पर प्राकृतिक प्रवरण को लागू नहीं किया जा सकता उन्होंने परिवर्तन के अन्य सिद्धांतों की अवहेलना की है।

3. कार्ल मार्क्स का सिद्धांत- कार्ल मार्क्स ने सामाजिक परिवर्तन को प्रौद्योगिकी एवं आर्थिक कारकों से संबंधित माना है। मार्क्स का सिद्धांत वर्तमान समय में सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं क्रांतिकारी सिद्धांत माना जाता है। उन्होंने इतिहास की भौतिक व्याख्या की और कहा कि मानव इतिहास में अब तक जो परिवर्तन हुए हैं वे उत्पादन प्रणाली में परिवर्तन के कारण ही हुए हैं। उनका कहना है कि जनसंख्या भौगोलिक परिस्थितियों एवं अन्य कारणों का मानव के जीवन पर प्रभाव तो पड़ता है लेकिन परिवर्तन के निर्णायक कारक नहीं है। निर्णायक कारक तो आर्थिक कारक प्रणाली ही है।

मार्क्स ने अपने सिद्धांत को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि मनुष्य को जीवित रहने के लिए कुछ भौतिक मूल्यों जैसे रोटी, कपड़ा, निवास आदि की आवश्यकता होती है इन मूल्यों को जुटाने के लिए मानव को उत्पादन करना होता है। उत्पादन करने के लिए उत्पादन के साधनों की आवश्यकता होती है। जीन साधनों के द्वारा व्यक्ति उत्पादन करता है, उन्हें प्रौद्योगिकी कहते हैं। प्रौद्योगिकी में छोटे-छोटे अवतार तथा बड़ी-बड़ी मशीनें होती हैं। प्रौद्योगिकी मेजर परिवर्तन आता है तो उत्पादन प्रणाली में भी परिवर्तन आता है। मार्क्स का कहना है कि मानो अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए किसी ना किसी उत्पादन प्रणाली को अपनाता है। उत्पादन प्रणाली दो पक्षों से मिलकर बनी होती है।

  1. एक उत्पादन के उपकरण या प्रौद्योगिकी श्रमिक उत्पादन का अनुभव एवं श्रम कौशल।
  2. दूसरा उत्पादन के संबंध।

किसी भी वस्तु के उत्पादन के लिए हमें औजार श्रम अनुभव एवं कुशलता की आवश्यकता होती है। साथ ही जो लोग उत्पादन के कार्य में लगे होते हैं उनके बीच कुछ आर्थिक संबंध भी पैदा हो जाते हैं। जैसे किसान कृषि क्षेत्र में उत्पादन करने के दौरान मजदूरों सुनार, लोहार एवं उसके द्वारा उत्पादित वस्तुओं के खरीददारों से संबंध बनाता है। जब उत्पादन प्रणाली में परिवर्तन होता है तो समाज में भी परिवर्तन आता है। उत्पादन प्रणाली की यह विशेषता है कि यह किसी भी अवस्था में स्थिर नहीं रहती। सदैव बदलती रहती है।

मार्क्स का कहना है कि इतिहास के प्रत्येक युग में 2 वर्ग रहे हैं। मानव समाज का इतिहास इन दो वर्गों के संघर्ष का इतिहास है। इन्होंने समाज के विकास को पांच भागों में बांटा और प्रत्येक युग में पाए जाने वाले दो वर्गों का उल्लेख किया। एक वर्ग जिसका उत्पादन के साधनों पर स्वामित्व रहा है। दूसरा वह जो श्रम से जीवन यापन करता है। इन दोनों में अपने-अपने हितों को लेकर संघर्ष करता है। प्रत्येक वर्ग संघर्ष का अंत में समाज एवं नए वर्गों के उदय के रूप में हुआ है। वर्तमान में भी पूंजीपति और श्रमिक 2 वर्ग है जो अपने अपने हितों को लेकर संघर्ष करते हैं।

एक युग के वर्ग संघर्ष के परिणाम स्वरुप में वर्गों का जन्म होता है। जो नई समाज व्यवस्था को जन्म देता है। इस प्रकार वर्ग संघर्ष एवं उसके परिणाम स्वरुप में वर्गों के जन्म के कारण ही समाज में परिवर्तन होते हैं। जिस तरह मार्क्स ने सामाजिक परिवर्तन में वर्ग संघर्ष की भूमिका को भी महत्वपूर्ण माना है।

मानव केवल अपनी आर्थिक आवश्यकताओं को पूरा करने वाला नहीं है। मैक्स वेबर ने मार्क्स के सिद्धांत की आलोचना की है। वे आर्थिक कारकों के स्थान पर धर्म को सामाजिक परिवर्तन का आधार मानते हैं।

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Comments

  1. can you written in nepali

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    1. No Borther, You can read it by translate it in Nepali..

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    1. Thankyou' have a good day ❤️❤️❤️❤️

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  3. Replies
    1. Apna anubhav Share karne ke liye DHANYAWAD❤️❤️ Have a Good Day.

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    2. Anonymous07 June, 2022

      Halo you

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  4. Anonymous24 May, 2022

    Apne bhut acha content likha h

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    1. Thankyou ❤️❤️ have a good day

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  5. Anonymous26 May, 2022

    Thanks for your information

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  6. Thanks you

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  7. Very helpful 👍🏻🙂 keep it up sir

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  8. Thank you sir🙏🙏have a Good bay

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  9. Rashi Gupta28 April, 2023

    Sir mai apko tahe dil se shukriya khna chahti hu bcz aapne jo content likha h ek dm points to points likha jo mujhe chahiye tha 😊 ,, aapka content mere liye bht helpful rha exam se phle sb kuch shi se prepration ho gyi 🙏 thank you so much for this type of notes ❤️🙏
    Bhole baba bless you with more success in your life 😊📿🙏....

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    1. Welcome !! Have a Good Day 💐💐💐
      Hamesa aise hi padhte rahiye aur aise hi aage badhte rahiye...

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  10. Anonymous05 July, 2023

    Sir send me the link of nature of social transformation in Hindi

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  11. Anonymous05 July, 2023

    Whatever you wrote is the best for me and my friends.

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  12. Super bro

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