उत्तर वैदिक काल की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक स्थिति

उत्तर वैदिक काल को उत्तर वैदिक काल क्यों कहते हैं।

उत्तर वैदिक काल का विकास 1000 ई. पू. से 600 ई.पू. के मध्य हुआ। वैदिक काल को वैदिक काल इसलिए कहा जाता है क्योंकि यह काल वेदों का काल रहा है, अर्थात इस काल में कई वेद लिखे गए जैसे: ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद इस प्रकार इसे वैदिक काल कहा जाता है।

उत्तर वैदिक काल की सामाजिक स्थिति

वैदिक काल में जनसंख्या और साधनों की विधि के कारण बड़े ग्राम और नगरों का विकास हो रहा था। आर्य और अनार्य रक्त के मिश्रण के कारण सामाजिक जीवन में परिवर्तन स्वाभाविक था। लेकिन अभी भी अधिकांश आर्य गांव में निवास करते थे। गांव के घर कच्ची और पक्की ईंटों मिट्टी और बांस आदि से बनाए जाते थे, छत को घास फूस से बनाए जाते थे, और भूमि पर व्यक्तिगत स्वामित्व का प्रचलन था।

1. परिवार-

उत्तर वैदिक काल में कौटुंबिक जीवन में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। संयुक्त परिवार की प्रथा प्रचलित थी। गृहपति परिवार में अत्यंत सम्मान पूर्ण स्थान था। अथर्ववेद में एक स्थान पर से परिवार में एकता हेतु प्रार्थना का वर्णन मिलता है, लगता है कि संयुक्त परिवार धीरे-धीरे विभक्त होने लगा था।

2. वर्णाश्रम व्यवस्था-

उत्तर वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था विकसित हो चुकी थी। और धीरे-धीरे जाति व्यवस्था का रूप ले रही थी। समाज चार भागों में बटा हुआ था, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। जन्म के आधार पर व्यवसाय और सामाजिक स्थिति निर्धारित होने लगी थी। समाज में ब्राह्मणों का स्थान सर्वोपरि था। इस युग में वैश्य शब्द का प्रयोग वर्ण और जाति के रूप में होने लगा था। समाज में इनका स्थान ब्राह्मणों और क्षत्रियों के बाद था।

3. विवाह-

साधारणतः स्त्री पुरुष दोनों के लिए विवाह अवश्यक माना जाता था। अविवाहित पुरुष को ना ही यज्ञ का अधिकार था और ना ही स्वर में प्रवेश पा सकता था। अथर्व वेद में आजीवन अविवाहित रहने वाली कन्याओं का वर्णन मिलता है जो अपने माता-पिता के साथ रहती थी। सजातीय विवाह का प्रचलन था परंतु अंतरजातिय विवाह का भी उदाहरण मिलते हैं, उत्तर वैदिक काल में विधवाओं का पुनर्विवाह हो सकता था, बल विवाह का भी उल्लेख मिलता है।

4. स्त्रियों की स्थिति-

उत्तर वैदिक काल में समाज में नारियों की स्थिति में परिवर्तन होने लगा था, नारियों के सम्मान और प्रतिष्ठा में कमी आई थी, अथर्ववेद और तैत्तिरीय संहिता में कन्या का जन्म दुःख का कारण माना गया है। फिर भी स्मृति काल की अपेक्षा स्त्रियों का सम्मान पूर्ण स्थान था।

5. भोजन वस्त्र आभूषण एवं मनोरंजन के साधन-

उत्तर वैदिक काल में भोजन और वस्त्र में कोई विशेष परिवर्तन नहीं था। लेकिन इस युग में मांस का सेवन बुरा समझा जाता था। अथर्ववेद के अनुसार जीवन की हत्या करके उसका मांस खाना उचित नहीं है। वस्त्रों में कंबल और साल का वर्णन मिलता है, और जूतों का भी प्रयोग किया जाता था, तथा सोने के अतिरिक्त चांदी का भी प्रयोग किया जाने लगा था।

6. शिक्षा-

उत्तर वैदिक काल में शिक्षा का काफी विकास हुआ था। गुरुकुल में प्रवेश करने से पहले ब्रह्मचारी या विद्यार्थी का संस्कार होता था और वह द्विज कहलाता था। अधिकांश अध्यापन मौखिक होता था विद्यार्थी के शरीरिक और मानसिक विकास पर विशेष जोर दिया जाता था।

उत्तर वैदिक काल की राजनीतिक स्थिति

उत्तर वैदिक काल में आर्यों के राजनीतिक संगठन में क्रांतिकारी परिवर्तन हुए_ जो कि इस प्रकार से है

1. राज्य का स्वरूप-

उत्तर वैदिक काल में राज्यों के स्थान पर प्रदेशिक राज्यों की स्थापना हुई। रिग वैदिक काल कबाइली राज्यों का महत्त्व समाप्त हो गया। राज्य का आधार प्रदेशिक हो गया था। अतः राजा ना केवल जन का प्रमुख था वरुण वह एक निश्चित प्रदेश का स्वामी था। उत्तर वैदिक काल में हमें अनेक शक्तिशाली राज्यों का उल्लेख मिलता है उदाहरण के लिए:- कुरु, पांचाल, काशी, मगध, कलिंग, अवंती, विदर्भ इत्यादि इस युग में साम्राज्यवाद का विकास हुआ। शक्ति, प्रतिष्ठा और विस्तार के अनुरूप वैदिक साहित्य में विभिन्न प्रकार के राज्यों का उल्लेख मिलता है।

2. राजा-

राजा या सम्राट पद वंशानुगत होता था। लेकिन इसके लिए प्रजा की स्वीकृति आवश्यक थी। अथर्ववेद में राजा के निर्वाचन का उल्लेख मिलता है। राजा को राजा के पद से निष्कासित करने और पुनः निर्वाचित करने का अधिकार था। उत्तर वैदिक काल में राजा पद की महत्ता बहुत बढ़ गई थी। राज्य अभिषेक के अवसर पर यज्ञ का आयोजन किया जाता था। राजाओं के लिए अधिराज, राजाधिराज, सम्राट इन सभी शब्दों का प्रयोग किया जाता था। राजा के राज्यरोहण के समय पुरोहित, यह घोषित करते थे कि “तुमको यह राज्य दिया जाता है, ताकि तुम कृषिकों व जनकल्याण, उन्नति और समृद्धि में विकास करो।” राजा प्रजा से 1/6 भाग का कर वसूल करता था।

3. राज्य के पदाधिकारी-

राज्य कार्य में राजा को सहायता प्रदान करने के लिए अनेक पदाधिकारी होते थे।

जैसे:- 

पुरोहित — राजगुरु

महिषी — राजा की पटरानी

सेनानी — सेना का प्रधान

क्षत्री — राजप्रसाद का रक्षक

संग्रहित — कोषाध्यक्ष।

भागदुध — कर संग्रहकर्ता।

इनके अलावा अन्य भी अधिकारी हैं।

4. सभा एवं समिति-

अथर्ववेद में राजा द्वारा सभा और समिति की कृपा प्राप्त करने हेतु प्रार्थना पत्र का उल्लेख मिलता है। ईश्वर से प्रार्थना की गई है और समिति के सदस्य एकमत हैं। लेकिन राजा की शक्ति में वृद्धि होने के कारण उत्तर वैदिक काल में धीरे-धीरे इन संस्थाओं का राजा पर नियंत्रण कम होने लगा था।

उत्तर वैदिक काल का आर्थिक जीवन

उत्तर वैदिक काल में आर्थिक क्षेत्र में बहुत अधिक प्रगति हुई।

1. कृषि एवं पशुपालन-

उत्तर वैदिक काल में कृषि एवं पशुपालन आर्यों का प्रमुख व्यवस्था था। लेकिन इस काल में कृषि का बहुत अधिक विकास हुआ और इसका महत्व भी बहुत अधिक बढ़ गया। ब्राह्मण में चार प्रकार के कृषि कार्य जोताई बुवाई कटाई और मड़ाई का वर्णन मिलता है। तैत्तिरीय संहिता के अनुसार वर्ष में दो फसलें ली जाती थी। यहां गेहूं, गोधूम, जौ, धान, उड़द, मूंग, तिल इन सभी फसलों का उल्लेख मिलता है। यहां नहरों के पानी से सिंचाई का वर्णन मिलता है। कीड़े मकोड़ों से फसलों की रक्षा के लिए अनेक यंत्रों मंत्रों का विधान था। अथर्ववेद में पशु धन में वृद्धि करने के लिए इंद्र से प्रार्थना की गई है।

2. उद्योग धंधे-

कृषि के साथ-साथ उत्तर वैदिक काल में उद्योग धंधों और व्यवसाय में भी काफी प्रगति हुई। यहां अनेक नवीन व्यवसाय का उल्लेख मिलता है। इस काल में वस्त्र उद्योग और धातु उद्योग का तेजी से विकास हुआ, सोने-चांदी लोहे तथा टीन आदि का प्रयोग होता था। इन वस्तुओं का प्रयोग अस्त्र-शस्त्र, औजार, आभूषण, बर्तन तथा अन्य वस्तुओं के निर्माण के लिए होता था उन और सन के बने पकोड़े का प्रयोग बढ़ रहा था।

3. वाणिज्य एवं व्यापार-

उत्तर वैदिक काल में वाणिज्य और व्यापार में पर्याप्त व्यक्ति हुए व्यापारियों का एक पृथक वर्ग था जिसे वाणिज्य कहते थे। अथर्ववेद के अनुसार व्यापारी एक स्थान से दूसरे स्थान को अपनी सामग्री लेकर जाया करते थे। सामुद्रिक व्यापार उन्नत अव्यवस्था में था वाजसनेयी संहिता में 100 पतवारों (जिसे हम चपू कहते हैं) वाली नाव का उल्लेख मिलता है।

उत्तर वैदिक काल की धार्मिक स्थिति

1. देव रूपों में परिवर्तन-

उत्तर वैदिक काल में देवी देवताओं की आराधना और उपासना होती थी लेकिन इस काल में अनेक देवी-देवताओं का महत्व कम हो गया था वरुण इंद्र आदि देवताओं का स्थान विष्णु शिव और प्रजाति ने ले लिया था रूद्र की अब शिव और महादेव के रूप में उपासना में लगी यज्ञ के रूप में विष्णु का महत्व बढ़ गया गंधर्व नाग अप्सरा आदि अर्ध्द देवताओं की पूजा होने लगी।

2. धार्मिक क्रियाएं एवं विधियां-

ऋग्वैदिक आर्यों का धार्मिक जीवन बड़ा सरल था, लेकिन उत्तर वैदिक काल में आर्यों का धार्मिक जीवन बहुत कठिन था। इस युग में यज्ञ का महत्व बहुत अधिक बढ़ गया था। धार्मिक कर्मकांड ओं का विस्तार हुआ यज्ञ इतने खर्चीला और जटिल हो गए कि साधारण जनता के लिए इन जगहों का अनुष्ठान करवाना असंभव है। राजसूय, वाजपेई, और अश्वमेध यज्ञों का विकास इसी युग में हुआ। यज्ञ में बलि का महत्व पड़ा और देवताओं से भी अधिक महत्व दिया जाने लगा। मनुष्य के लौकिक तथा पारलौकिक उन्नति के लिए यज्ञ को अनिवार्य माना गया। साथ ही साथ समाज में तंत्र, मंत्र, जादू, टोना, वशीकरण आदि पर लोग विश्वास करने लगे।

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