जैन धर्म की भारतीय संस्कृति को देन

तो आइए अब हम जानते हैं की जैन धर्म ने हमारे भारतीय संस्कृति को क्या क्या  दिया  है_

जैन धर्म का भारतीय संस्कृति में योगदान

1. दर्शन के क्षेत्र में देन

जैन धर्म ने भारतीय दर्शन के क्षेत्र में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। जैन धर्म में अनेक नए सिद्धांतों का प्रतिपादन किया जो मौलिक थे। उदाहरण के लिए जैन धर्म के स्यादवाद को लिया जा सकता है। स्यादवाद का अर्थ सभी दृष्टिकोण से देखने पर सत्य के रूप  देखे जा सकते हैं। इनमें हर विचार सत्य ही व्यक्त करता है। स्यादवाद के अतिरिक्त अनेक मौलिक सिद्धांतों को जैन धर्म में भारतीय संस्कृति को प्रदान किया। इसके विषय में अनेकांतवाद का सिद्धांत बहुचर्चित है।

2. सामाजिक देन

जैन धर्म की सामाजिक क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण देन है। जैन धर्म को आश्रय देने वाले राजाओं ने समाज के निर्धन वर्ग के लिए अनेक औषधि घर और विश्रामालय और पाठशालाओं का निर्माण कराया। जहां निशुल्क दवाइयां ठहरने की सुविधा और शिक्षा की व्यवस्था उपलब्ध कराई। इससे समाज के अन्य वर्गों में भी निर्धनता के प्रति दया भाव व दान देने की भावना जागृत हुई। इसके अलावा जैन धर्म में स्त्रियों की स्थिति सुधारने के लिए भी प्रयास किया। इस उद्देश्य से उन्हें जैन संघ में रहने वाले जैन शिक्षाओं का पालन कर मोक्ष प्राप्त करने का भी अधिकार जैन धर्म के द्वारा ही किया गया था।

महावीर के समय में जाति प्रथा प्रचलित थी और समाज में ऊंच-नीच हुआ छुआछूत की भावनाएं थी। इस कारण निम्न वर्ग की स्थिति सोचनीय थी। जैन धर्म ने ना केवल जाति प्रथा का विरोध किया बल्कि सभी व्यक्तियों को एक समान बताया। जैन धर्म के द्वारा जाति प्रथा का विरोध करने के कारण ब्राह्मणों की शक्ति कम होने लगी व सामाजिक समानता की भावना अच्छी होने लगी। जिससे शूद्रों (निम्न वर्ग) की स्थिति में सुधार हुआ। जैन ग्रंथ में वर्णन है कि मालिकों को अपने दास, दासियों, कर्मचारियों का अच्छी तरह से सेवा करना चाहिए। इस प्रकार की शिक्षा से समाज में निम्न वर्ग और दासों के प्रति उदारता एवं सहृदयता के भाव जागृत हुए जिसका सीधा प्रभाव उनकी सामाजिक स्थिति पर पड़ा।

3. धार्मिक देन

जैन धर्म ने ब्राह्मण धर्म की बुराइयों की आलोचना भी की। अतः ब्राह्मणों को भी उनके धर्म में उपस्थित बुराइयों व कुरीतियों का ज्ञान हुआ। ब्राह्मणों को अपने धर्म को बनाए रखने के लिए यह जरूरी हो गया कि वह अपने धर्मों में सुधार कर लें। अतः जैन धर्म के कारण ब्राह्मण धर्म पहले की अपेक्षा अधिक सरल हो गया।

4. साहित्यिक देन

जैन धर्म के द्वारा लोक भाषा में साहित्य की रचना की गई। लोक भाषा को समृद्ध बनाने में जैन धर्म का महत्वपूर्ण योगदान है। जैन धर्म के मूल धार्मिक ग्रंथों में 12 अंग 11 उपांग 10 पैन्न 5 मूलसूत 1 नंदीसूत और 7 छयसूत भी प्राकृत भाषा में है। कुछ धार्मिक ग्रंथों की रचना अपभ्रंश भाषा में हुई है। दक्षिण भारत के साहित्य में भी जैन धर्म का अत्यधिक प्रभाव है। दक्षिण भारत में जैन धर्म के प्रचार हेतु कन्नड़, तमिल, तेलुगु और अन्य भाषाओं में भी जैन ग्रंथों की रचना की गई।
जैन धर्म के विद्वानों ने ना केवल धार्मिक व दर्शनिक रचनाओं का सृजन किया बल्कि उन्होंने व्याकरण काव्य और गणित आदि पर भी अनेक ग्रंथों की रचना की। गुप्त काल में संस्कृत भाषा के अधिक लोकप्रिय होने के कारण जैन विद्वानों ने अपने धर्म ग्रंथों की संस्कृत में भी रचना की। 11वीं शताब्दी में हेमचंद्र सूरी नामक जैन विद्वान में संस्कृत में ही अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथ का सृजन किया। सभी जैन साहित्यकारों में हरीभद्र सिद्ध सेन आदि के नाम बहुचर्चित है। इनमें से सबसे ऊंचा स्थान हेमचंद्र सूरी का ही है।

5. कला के क्षेत्र में देन

जेल साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं के द्वारा भारतीय साहित्य को समृद्ध बनाया। जैन कलाकारों ने अपनी कलाकृतियों के द्वारा भारतीय कला के क्षेत्र में बहुत वृद्धि की। जैन धर्म के अनुयायियों ने अपने धर्म के प्रचार एवं प्रसार के लिए पूज्य तीर्थ कारों की स्मृति को स्थाई बनाए रखने के उद्देश्य से मंदिरों, स्तूपों, मठों, रेलिंगों, प्रवेशद्वार, स्तंभों, गुफा व मूर्तियों का निर्माण कराया। दूसरी सदी में जैन धर्म के प्रचार के लिए हाथीगुम्फा नामक गुफाओं में अनेक कलाकृतियों का निर्माण किया गया। इसके अलावा राजगृह, पावापुरी, पार्श्वनाथ, पर्वत, सौराष्ट्र राजस्थान और मध्य भारत में अनेक जैन मंदिरों व मूर्तियों का निर्माण कराया।
राजस्थान में आबू पर्वत पर तथा बुंदेलखंड खजुराहो ने 11वीं शताब्दी में निर्मित मंदिर वस्तु कला एवं मूर्तिकला के अद्भुत नमूने हैं। दक्षिण भारत में श्रवणबेलगोला के निकट 70 फुट ऊंची गोमतेश्वर मंदिर व बड़वानी में 84 फुट ऊंची जैन तीर्थंकर की प्रतिमा दर्शनीय है। इन प्रतिमाओं का निर्माण विशाल चट्टानों को काटकर किया गया है। इसके अलावा जैन धर्मावलंबियों के द्वारा धर्म स्तंभों का भी निर्माण कराया गया। जिसका उदाहरण चित्तौड़ के दुर्ग में निर्मित स्तंभ है जिसका जैन कला के 11वीं व 12वीं सदी में अत्यधिक विकास हुआ था।

6. अहिंसा

जैन धर्म अहिंसा का सिद्धांत नहीं था किंतु उल्लेखनीय तथ्य यह है कि अहिंसा का प्रचार जितना जैन धर्म के द्वारा किया गया उतना किसी अन्य धर्म के द्वारा नहीं हुआ। जैन धर्म ने अहिंसा पर अत्यधिक बल दिया और महावीर ने पशु पक्षी तथा वनस्पति की हत्या ना करने का अनुरोध अपने अनुयायियों से किया। क्योंकि उनका कहना था कि वनस्पतियों में भी जीव होता है। जैन धर्म में अहिंसा के सिद्धांत व अनेक प्रकार के कारण वैदिक धर्म के अंतर्गत होने वाले यज्ञ में भी बलि प्रथा धीरे-धीरे कम होने लगी। जैन धर्म में अहिंसा के प्रचार में अपना सम्पूर्ण सहयोग दिया।

7. राजनीतिक प्रभाव

जैन धर्म के अहिंसा के सिद्धांत के प्रचार में तत्कालीन राजनीतिक स्थिति में भी प्रभाव पड़ा। जैन धर्म के अनुयायियों द्वारा शांति प्रिय नीति का पालन करने का प्रयास किया जाना इस तथ्य को प्रमाणित करता है कि जैन साहित्य से तत्कालीन राजनीतिक स्थिति के विषय में अमूल्य जानकारी उपलब्ध होती है।

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