शिक्षा का अर्थ
शिक्षा एक सामाजिक प्रक्रिया है और इस प्रक्रिया में समाज के सभी सदस्यों का योग होता है। विशेषकर माता-पिता, गुरुजनों और स्कूल के शिक्षक-शिक्षिकाएं और बालक-बालिकाएं इस योजना में भाग लेते हैं। शिक्षा और जीवन एक दूसरे से अलग ना होने वाली दो प्रक्रियाएं हैं। इसलिए समाज के प्रत्येक सदस्य के हृदय में शिक्षा शब्द के प्रति एक निश्चित भावना होती है और इसी के रूप में वह शिक्षा के अर्थ का प्रयोग करता है।
शिक्षा शब्द से तात्पर्य
- पहले अर्थों में शिक्षा का तात्पर्य पालन पोषण से है।
- दूसरे अर्थ में शिक्षा का तात्पर्य मार्गदर्शन करते हुए विकास करना है।
शिक्षा की परिभाषाएं
फ्रोबेल के अनुसार- “शिक्षा वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा बालक की शक्तियां बाहर प्रकट होती है।”
बासिंग के अनुसार- “शिक्षा का कार्य व्यक्ति का वातावरण से उस सीमा तक स्थापित करना है, जिससे व्यक्ति और समाज दोनों को स्थाई संतोष प्राप्त हो सके।,”
पेस्टालॉजी के अनुसार- “शिक्षा बच्चों के जीवन की गतिशील तथा लयबद्ध प्रगति है।”
रॉबर्ट एम. लॉबी के अनुसार “शिक्षा कई युगों व्यवहारों के सभी स्तरों का ज्ञान एकत्र किया है। यह एक सामाजिक अर्थव्यवस्था है जो भविष्य में होने वाले विनाश को रोकती है।”
शिक्षा के आवश्यक अंग
- प्रशिक्षण
- निर्देश
- प्रेरणा
शिक्षा की सहायक संस्थाएं
आधुनिक युग की कुछ सहायक शिक्षण संस्थानों जैसे प्रेस, रेडियो, टेलीविजन, सिनेमा आदि यह सभी शिक्षा का प्रचार प्रसार करने मे सहायक होती है। प्रेस की स्थापना के कारण पुस्तकों एवं पत्र-पत्रिकाओं का छापना संभव हुआ है। पुस्तकों के माध्यम से सभी लोगों को शिक्षा सरलता से उपलब्ध होती जा रही है। आज बड़े-बड़े पुस्तकालयों की स्थापना की गई है जो ज्ञान के संचित भंडार कहे जा सकते हैं। रेडियो, टेलीविजन एवं सिनेमा की उपयोगिता आज बहुत चर्चित है। इन चित्र, गीत, संगीत, नाटक, वार्तालाप आदि के द्वारा जन शिक्षण का कार्य किया जाता है।
भारत में शिक्षा की समस्याएं
भारत में एक लंबे समय से शिक्षा संबंधी नीति प्रबंध तथा इसकी प्रकृति को लेकर विद्वानों के बीच बहस चलती रही है। समय-समय पर शिक्षा से संबंधित समस्याओं को दूर करने के लिए सरकार द्वारा अनेक प्रयत्न भी किए गए हैं। इसके बाद भी आज हमारी शिक्षा व्यवस्था में अनेक ऐसी गलतियां हैं जिन्हें दूर किए बिना शिक्षा को सामाजिकरण सामाजिक नियंत्रण तथा परिवर्तन का एक प्रभावपूर्ण साधन नहीं बनाया जा सकता है।
1. प्रबंध तथा साधनों की समस्या- हमारी शिक्षा की सबसे बड़ी समस्या एकरूपता का अभाव होना है। अनेक शिक्षा संस्थाओं का संचालन एवं विशेष धर्म, जाति अथवा भाषा के विकास को ध्यान में रखते हुए किया जा रहा है इसके फलस्वरूप शिक्षा के द्वारा सही लक्ष्य प्राप्त करना अत्यधिक कठिन हो जाता है।
2. शिक्षा पर संपन्न वर्गों का प्रभुत्व- वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में उन लोगों को उचित स्तर की शिक्षा प्राप्त करने के अधिकार अवसर मिल जाते हैं जो आर्थिक रूप से धनवान हैं। पब्लिक स्कूलों तथा निजी क्षेत्र द्वारा संचालित प्रौद्योगिक शिक्षा संस्थाओं द्वारा दी जाने वाली शिक्षा इतनी महंगी है कि सामान्य व्यक्ति इस शिक्षा का लाभ नहीं उठा पाते हैं। इसका तात्पर्य है कि वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में छात्र की योग्यता की तुलना में अधिक साधनों का महत्व बढ़ जाने से नई विषमता को प्रोत्साहन मिला हैं।
3. शिक्षा में नियोजन का अभाव- स्वतंत्रता के बाद भारत में विभिन्न स्तर की शिक्षा संस्थाओं की संख्या में बहुत वृद्धि हुई है, लेकिन यह वृद्धि देश की जनसंख्या और छात्रों की बढ़ती हुई संख्या के दृष्टिकोण से बहुत कम है। आज भी शिक्षा का विकास किसी नियोजित नीति के आधार पर नहीं हो पा रहा है। अनेक क्षेत्रों में स्नातकों की भरमार होने के कारण बेरोजगारी बढ़ रही है। जबकि बहुत से क्षेत्र ऐसे हैं जिनके लिए प्रशिक्षित और कुशल व्यक्ति उपलब्ध नहीं है। इस अनियोजित शिक्षा के कारण ही छात्र असंतोष, विभिन्न प्रकार के आंदोलनों तथा अनुशासनहीनता को प्रोत्साहन मिलता है।
4. शिक्षा का राजनीतिकरण- शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य विद्यार्थियों के ज्ञान को बढ़ाकर उनका सामाजिकरण करना है इसके विपरीत शिक्षा को किसी विशेष राजनीतिक दल की नीतियों का साधन बना देने से इनकी उपयोगिता समाप्त होने लगती है। वर्तमान शिक्षा में अध्यापकों की नियुक्ति तथा विद्यार्थियों के प्रवेश में राजनेताओं का बढ़ता हुआ प्रभाव चिंता का विषय है।
5. व्यवसायिक शिक्षा की कमी- देश में बड़ी-बड़ी प्रौद्योगिक शिक्षा संस्थाओं की स्थापना की गई है लेकिन इनका लाभ जनसाधारण को प्राप्त नहीं हो पाता। व्यवसायिक शिक्षा के नाम पर देश में इस समय 1215 पॉलिटिक्निक स्कूल खोले जा चुके हैं, लेकिन 125 करोड़ जनसंख्या वाले देश में इनके द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों को कितना लाभ मिल सकता है? हमारी अर्थव्यवस्था में आज भी खेती कुटीर उद्योग तथा सामान्य व्यापार का विशेष महत्व है। ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसी शिक्षा संस्थाओं का अभाव है जो स्थानीय स्तर पर बच्चों को खेती, कुटीर उद्योग, भवन निर्माण, बड़ाई गिरी, वेल्डिंग, पेंटर, बिजली के काम तथा मोटर मैकेनिक जैसे उपयोगी व्यवसायियों की शिक्षा दे सकें। यही कारण है कि ग्रामीण और श्रमिक अपने बच्चों को शिक्षा दिलाने में अधिक रूचि नहीं लेते।
6. शिक्षकों में अलगाववाद- शिक्षकों की सफलता बहुत बड़ी सीमा तक शिक्षा के प्रति अध्यापकों की कटीबध्दता पर निर्भर है। दूसरी ओर प्रायमरी स्तर पर अध्यापक की शैक्षणिक योग्यता की तुलना में उन्हें प्राप्त होने वाला वेतन कितना कम है कि वे शिक्षा में अधिक रुचि नहीं ले पाते। उच्च शिक्षा संस्थाओं में शिक्षक को उच्च स्थान मिलने के बाद भी उसे कोई अधिकार प्राप्त नहीं है जिसके द्वारा व शिक्षा व्यवस्था को प्रभावपूर्ण बना सके।
शिक्षा के प्रकार
1. सामूहिक शिक्षा- जब किसी अकेले व्यक्ति के अलावा अन्य कई व्यक्तियों को एक साथ क्लास रूम में या कहीं भी शिक्षा दी जाती है, तो उसे सामूहिक शिक्षा कहते हैं।
2. प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष शिक्षा- जब अध्यापक शिक्षा प्रदान करने वाला प्रत्यक्ष रुप से ही सीखने वाले को किसी विषय का ज्ञान प्रदान करता है तो उसे प्रत्येक शिक्षा कहते हैं। आप प्रत्येक शिक्षा में सीखने वाला अन्य व्यक्तियों का अनुसरण करता है अथवा शिक्षक प्रत्यक्ष रूप से कुछ नहीं कहता लेकिन कहानी, किस्सों के द्वारा अप्रत्यक्ष साधनों के द्वारा ज्ञान प्रदान करता है।
3. औपचारिक एवं अनौपचारिक शिक्षा- स्कूल से लेकर विश्वविद्यालय तक की शिक्षण संस्थाएं आज औपचारिक रूप से शिक्षा देने का कार्य करती है। आधुनिक युग में शिक्षा औपचारिक रूप से ही प्रदान की जाती है। पहले समाजों में शिक्षा अनौपचारिक रूप से परिवार पड़ोस संगठनों आदि के द्वारा दी जाती थी।
4. सामान्य तथा विशिष्ट शिक्षा- जब किसी विशिष्ट उद्देश्य हेतु नहीं लेकिन सामान्य ज्ञान के लिए शिक्षा प्रदान की जाती है तो वह सामान्य शिक्षा कहलाती है। और किसी विशिष्ट विषय एवं ज्ञान से संबंधित शिक्षा दी जाती है तो उसे विशिष्ट शिक्षा कहते हैं जैसे- चिकित्सा, कानून, उद्योग, इंजीनियरिंग आदि की शिक्षा विशिष्ट शिक्षा।
5. नकारात्मक एवं सकारात्मक- जब किसी पूर्व निश्चित उद्देश्य के अनुरूप शिक्षा प्रदान की जाती है तो उसे साकारात्मक शिक्षा कहते हैं। और जब बिना किसी पूर्व निश्चित उद्देश्य के शिक्षा दी जाती है तो उसे नकारात्मक शिक्षा कहते हैं।
शिक्षा के उद्देश्य | शिक्षा के महत्व
1. सार्वभौमिक उद्देश्य- सर्व भौमिक उद्देश्यों को सामान्य उद्देश्य भी कहा जाता है। सर्व भौमिक उद्देश्य देश व काल से प्रभावित ना हो कर सदा एक से ही रहते हैं और इनका निर्धारण प्रायः उनके आंतरिक मूल्यों के आधार पर होता है। इनकी उपयोगिता सभी देशों व सभी कार्यों में होती है। इस प्रकार के कुछ महत्वपूर्ण उद्देश्य हैं जिनसे मानव गुणों का विकास होता है जैसे- प्रेम, अहिंसा, मानव के व्यक्तित्व का संतुलित विकास, उचित शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य समाज की प्रगति।
2. विशिष्ट उद्देश्य- विशिष्ट उद्देश्य किसी भी सामाजिक व आर्थिक परिस्थिति पर आधारित होते हैं। यह देश से प्रभावित होते हैं और किसी विशेष परिस्थिति में ही उपयोगी होते हैं उदाहरण के लिए एक औद्योगिक दृष्टि से पिछड़ा हुआ देश विज्ञान और तकनीकी विषयों के अध्ययन पर महत्व देता है। ऐसे देश में शिक्षा का उद्देश्य आधुनिकरण की प्रक्रिया में प्रगति लाना हो सकता है।
3. शिक्षा का सामाजिक उद्देश्य- जब तक व्यक्ति सामाजिक प्राणी है तब तक उसे अपनी व्यक्तित्व को सामाजिक विषमताओं के अधीन रखना पड़ेगा। इसके अतिरिक्त समाज की आवश्यकताओं के अनुसार उसके व्यक्तित्व का निर्माण होगा।
4. व्यक्तिक उद्देश्य- व्यक्ति अपने आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए सामग्री जुटाता है। यही उसकी व्यक्तित्व को समर्थक और शक्तिशाली बनाने का प्रयास करता है। शिक्षा को ऐसी दशा में उत्पन्न करने चाहिए जिससे व्यक्तित्व का पूर्ण विकास हो सके और व्यक्ति मानव को अपना मौलिक योग दे सके।
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