समिति और संस्था का अर्थ, परिभाषा, विशेषताएं

समिति का अर्थ | समिति किसे कहते हैं?

जब एक समुदाय के कुछ सदस्य किसी विशेष उद्देश्य अथवा उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किसी संगठन का निर्माण  करते हैं, तब उसे समिति कहते हैं। उदाहरण के लिए; श्रम कल्याण समिति, दुर्गोत्सव समिति, छात्र समिति आदि।

समिति की परिभाषा

मैकाइवर तथा पेज के अनुसार- “समिति की परिभाषा एक समूह के रूप में कर सकते हैं जो किसी एक हित अथवा अनेक हितों की सामान्य पूर्ति के लिए संगठित हुआ हो।”

मौरिस जीन्सबर्ग के अनुसार- “किसी एक या अनेक निश्चित उद्देश्यों को पूरा करने के लिए जब कुछ सामाजिक प्राणी एक दूसरे के साथ मिलकर संगठन की रचना करते हैं तब उस संगठन को समिति कहते हैं।”

संस्था का अर्थ | संस्था किसे कहते हैं?

संस्था से तात्पर्य एक ऐसे संगठन से है जिसका मूर्त रूप होता है, उदाहरण के लिए; विद्यालय, न्यायालय, क्लास, बाल अपराध, अस्पताल आदि को लोग संस्था कहते  हैं।

संस्था की परिभाषा

ऑगबर्न एवं निमकॉटक के अनुसार- “मानवीय आवश्यकताओं की संतुष्टि के लिए संगठित एवं स्थापित प्रणालियां सामाजिक संस्थाएं हैं।”

बोगार्ड्स के शब्दों में- “एक सामाजिक संस्था समाज की संरचना है जिसका स्थापित कार्य विधियों द्वारा व्यक्तियों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए संगठित किया जाता है।”

समनर के अनुसार- “संस्था एक विचारधारा और एक ढांचे से मिलकर बनती है।”

समिति और संस्था में अंतर

समिति

  1. समिति मूर्त होती है।
  2. समिति से मनुष्यों के समूह का बोध होता है।
  3. समिति की स्थापना की जाती है।
  4. समिति की प्रकृति स्थाई होती है।
  5. समिति अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए संस्था का निर्माण करती है।
  6. समिति का कोई निश्चित ढांचा नहीं होता है।
  7. प्रत्येक समिति का एक निश्चित नाम होता है।
  8. समिति पारस्परिक सहयोग पर निर्भर करती है।
  9. समिति अनिवार्य रूप से सामाजिक विरासत नहीं है।

संस्था

  1. संस्था अमूर्त होती है।
  2. संस्था से नियमों तथा व्यवस्थाओं का बोध होता है।
  3. संस्था का विकास अधिकतर स्वयं होता है।
  4. संस्था की प्रकृति स्थाई होती है।
  5. संस्था समिति का निर्माण करती है।
  6. संस्था का निश्चित सामाजिक ढांचा होता है।
  7. संस्था विशेष प्रतीकों द्वारा पहचानी जा सकती है।
  8. यह मनुष्यों की प्रक्रियाओं पर निर्भर करती है।
  9. संस्था अनिवार्य रूप से सामाजिक विरासत होती है।

संस्था के कार्य

1. मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति एवं कार्य की दिशा- प्रतीक संस्था का विकास किसी ना किसी मानवीय आवश्यकताओं को लेकर होता है। इसी कारण संस्थाओं को माननीय आवश्यकताओं की पूर्ति के साधन के रूप में देखा जाता है। शिक्षण संस्था, विवाह संस्था एवं पारिवारिक नामक संस्था मनुष्यों की कुछ प्रमुख आवश्यकताओं की पूर्ति करती हैं।

2. व्यक्तियों के कार्य को सरल बनाती है- संस्था मानव व्यवहार के सभी आ चरणों को एक सुव्यवस्थित रूप में प्रस्तुत करके स्पष्ट करती हैं कि व्यक्ति को क्या कार्य करना है अथवा उनके कार्यों की दिशा क्या होनी चाहिए। इस प्रकार संस्था कार्य करने की एक निश्चित विधि या प्रणाली का निर्धारण कर देती है।

3. व्यवहारों में अनुरूपता- संस्था से संबंधित एक निश्चित कार्य प्रणाली, कुछ नियम एवं परंपराएं होती हैं। व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए इन्हीं का सहारा लेता है। जब एक समूह के लोग अपने कुछ विशिष्ट संस्थाओं के नियमों एवं परंपराओं को ध्यान में रखते हुए व्यवहार करते हैं तो उनके व्यवहारों में अनुरूपता या समानता होना स्वभाविक है।

4. सांस्कृति की वाहक- संस्था संस्कृति को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित करने का महत्वपूर्ण कार्य करती है। संस्थाओं के माध्यम से ही संस्कृति की रक्षा होती है, उसे स्थायित्व प्राप्त होता है। परिवार संस्कृति के स्थानांतरण का एक प्रमुख साधन है।

5. स्थिति एवं कार्य का निर्धारण- संस्था व्यक्ति को स्थिति प्रदान करने और उससे संबंधित कार्य का निर्धारण करने का महत्वपूर्ण कार्य करती है। विवाह संस्था के द्वारा एक पुरुष को पति की और स्त्री को पत्नी की प्रतिस्पर्धा प्राप्त होती है, साथ ही इनसे संबंधित कार्य भी निर्धारित होते हैं।

6. व्यवहारों पर नियंत्रण- संस्थाएं सामाजिक नियंत्रण का प्रमुख साधन है। प्रत्येक संस्था व्यक्तियों के कार्य की दिशा अथवा व्यवहार का एक तरीका निश्चित कर उन्हें उसी के अनुरूप कार्य करने का आदेश देती है। परिवार और जाति नामक संस्थाएं हजारों वर्षों से अनेक रूपों में अनेक सदस्यों के व्यवहारों को नियंत्रित करती रही है।

संस्थाओं की विशेषताएं

1. निश्चित उद्देश्य- संस्था की मुख्य विशेषता निश्चित उद्देश्यों का होना है। इन्हीं निश्चित उद्देश्य को पूरा करने के लिए संस्था का निर्माण किया जाता है। किंतु जब आवश्यकताओं, लक्ष्मी व परिस्थितियों में परिवर्तन हो जाता है तो उद्देश्य में भी परिवर्तन होता है। संक्षेप में हर, स्थिति व परिस्थिति में संस्था के निश्चित उद्देश्य होते हैं।

2. विचार- संस्था का प्राथमिक तत्व किसी व्यक्ति के मन या मस्तिष्क के उत्पन्न मौलिक विचार हैं। क्योंकि जब मनुष्य किसी आवश्यकता या लक्ष्य को पूरा करने हेतु कार्य करने की सोचता है तो सर्वप्रथम उसके मस्तिष्क में विचार आते हैं। यही विचार कालांतर में संस्था के रूप में परिवर्तित हो जाते हैं।

3. विरासत के रूप में- संस्था एक विरासत के रूप में होती है। संस्था एक या दो चार दिनों में नहीं बन जाती बल्कि इसके निर्मित होने में काफी समय लगता है। जब कोई विचार, कार्यप्रणाली का तरीका समाज या समुदाय के सदस्यों द्वारा स्वीकार कर लिया जाता है, अर्थात सामूहिक तौर पर उस विचार को स्वीकृति प्रदान हो जाती है और वहां पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होता हुआ बना रहता है, तभी वह संस्था बन जाता है।

4. सामूहिक स्वीकृति- किसी भी प्रकार का विचार चाहे वह जितना भी अच्छा वाला क्यों ना हो, तब तक समझता नहीं बन पाता जब तक कि उसे समाज या समुदाय के सदस्यों की स्वीकृति प्राप्त ना हो जाए। सामूहिक स्वीकृति प्राप्त होना संस्था के लिए आवश्यक है। क्योंकि बिना सामूहिक स्वीकृति के संस्था नहीं बन सकती।

5. नियम का ढांचा- बिना निश्चित ढांचे या संरचना के कोई भी संस्था नहीं होती। ढांचे और संरचना का आशय उस कार्य प्रणालियों या नियमों से है जिन पर चलकर संस्था अपने लक्षण एवं उद्देश्यों को प्राप्त करने का प्रयास करती है। यह नियम चाहे लिखित हो या अलिखित अर्थात प्रत्येक संस्था में नियमों, और उप नियमों कार्य प्रणालियों तथा स्वीकृत एवं निषेधात्मक प्रति मानव का संयुक्त रुप विद्यमान रहता है। इन्हीं विशेषताओं के कारण संस्था का अस्तित्व बना रहता है।

6. अधिकार- संस्था की एक महत्वपूर्ण विशेषता अधिकार है। किसी अधिकार के द्वारा संस्था अपने सदस्यों के व्यवहारों एवं कार्यों पर नियंत्रण कर पाने में सफल होती है। उदाहरण के लिए विवाह संस्था के माध्यम से अवैध यौन संबंधों पर नियंत्रण करने हेतु सामाजिक अपमान, बहिष्कार, आर्थिक दंड या वैधानिक दंड का भय दिखाया जाता है, इस नियम में अधिकारी के बिना संस्था अपने लक्ष्यों को प्राप्त नहीं कर सकती।

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