सामाजिक संरचना की अवधारणा | Concept of Social Structure

सामाजिक संरचना की अवधारणा को सभी विद्वानों ने अपने अपने दृष्टिकोण से स्पष्ट करने का प्रयास किया है जो कि इस प्रकार से है_

samajik sanrachna ki avdharna ko samjhaie;

कार्ल मैनहिम के अनुसार- जर्मनी के प्रसिद्ध समाजशास्त्रीओं में इनका विशिष्ट स्थान है। सामाजिक संरचना को स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा है कि “सामाजिक संरचना परस्पर क्रिया करती हुई सामाजिक शक्तियों का जाल है, जिससे निरीक्षण और चिंतन की विभिन्न प्रणालियों का जन्म होता है।” इन विद्वानों के विचार से स्पष्ट होता है कि सामाजिक संरचना का निर्माण सामाजिक शक्तियों के माध्यम से होता है। यहां सामाजिक शक्तियों का तात्पर्य सामाजिक नियंत्रण के अनुरूप भूमिका पूर्ण करने के लिए प्रेरित तथा बाध्य करते हैं। यह सामाजिक शक्तियां एक दूसरे से प्रचार संबंधित रहती हुई कार्य करती रहती हैं। तथा निरीक्षण एवं चिंतन की पद्धतियों को जन्म देती रहती हैं। मैं नहीं की इस परिभाषा को सामाजिक साधना की संकुचित विचारधारा वाला परिभाषा माना जाता है, क्योंकि इन्होंने यह स्पष्ट नहीं कर सके कि सामाजिक संरचना का निर्माण किन इकाइयों से होता है।

कोजर के शब्दों में- “संरचना अपेक्षाकृत स्थाई प्रतिमानो की व्यवस्था है।” इस परिभाषा से शायद कोजर का आशय समाज के स्वीकृत मानदंडों से है, जिन पर चलना समाज के सदस्यों को आवश्यक होता है तथा इन मानदंडों के प्रकृति स्थाई होती है।

मॉरिस जिंसबर्ग ने सामाजिक संरचना पर विचार देते हुए बताया है कि - “सामाजिक संरचना का अध्ययन सामाजिक संगठन के प्रमुख स्वरूपों अर्थात समूहों के प्रकार, समितियों, संस्थाओं और इनके संकुल से समाज का निर्माण होता है।” इससे स्पष्ट होता है कि सामाजिक संरचना का निर्माण समाज की उन विशिष्ट इकाइयों से होता है, जिनसे कि समाज का निर्माण होता है। आधुनिक समाज शास्त्रियों ने इस विचार को उपयुक्त नहीं माना।

एच. एम. जॉनसन के अनुसार- “किसी भी वस्तु की संरचना से हमारा आशय इसके भागों के सापेक्षिक रोक पाए जाने वाले स्थाई अंतर संबंधों से होता है।” इस परिभाषा में जॉनसन ने स्थाई अंतर संबंधों को केंद्रित मानकर संरचना को स्पष्ट करने का प्रयास किया है।

रेडक्लिफ ब्राउन के अनुसार- “संस्था द्वारा परिभाषित और नियमित संबंधों में लगे हुए व्यक्तियों की क्रमबद्धता ही सामाजिक संरचना है।” इस परिभाषा में समाज स्वीकृत मान्य व्यवहारों को व्यक्ति क्रमबद्ध, अर्थात नियमित रूप से करते रहते हैं तो सामाजिक संरचना का निर्माण होता है, समाज के सदस्य होने के नाते व्यक्ति के कार्य व व्यवहार सामाजिक नियंत्रण की विभिन्न संस्थाओं के द्वारा नियंत्रित व परिभाषित होते हैं।

टालकॉट पारसन्स ने लिखा है- “सामाजिक संरचना परस्पर संबंधित संस्थाओं एजेंसियों सामाजिक प्रतिमान हो तथा साथ ही समाज के प्रत्येक सदस्य द्वारा ग्रहण किए गए पदों एवं कार्यों के विशिष्ट क्रमबद्ध का के रूप में सामाजिक संरचना की अवधारणा को स्पष्ट करने का प्रयास किया है।” हिना का विचार है कि समाज की विभिन्न इकाइयों और तत्वों को जिनसे कि समाज का निर्माण होता है सामाजिक संरचना स्वीकृत नहीं किया जा सकता, लेकिन जब समाज की विभिन्न इकाइयों में एक निश्चित रूप में क्रमबद्धता होती है तभी सामाजिक संरचना कहा जा सकता है।

एस. एफ. नैडेल‌ के अनुसार- “सामाजिक संरचना विभिन्न अंगों की कविता को स्पष्ट करती है जैसे- यह तुलनात्मक रूप से स्थाई होती है, किंतु इसका निर्माण करने वाले अंग परिवर्तनशील होते हैं।” इस परिभाषा में यह स्वीकार किया गया है कि सामाजिक संरचना तो स्थाई होती है, किंतु सामाजिक संरचना का निर्माण करने वाली समाज की काई चाहे वह कोई भी क्यों ना हो उनमें परिवर्तन होता है। अर्थात संरचना का निर्माण करने वाली इकाइयों की प्रवृत्ति परिवर्तनशीलता के लिए होती है। किंतु इन इकाइयों में जो क्रमबद्धता होती है उसी से सामाजिक संरचना का निर्माण होता है।

टी. बी. बोटोमोर - इन्होंने अपनी सुप्रसिद्ध कृति 'Sociology' में प्रचलित सामाजिक संरचना की विचारधाराओं को चार भागों में अलग करके सरलता से स्पष्ट करने का प्रयास किया है जो कि इस प्रकार से हैं_

1. सामाजिक संबंधों के संरचनात्मक स्वरूप को मानने वाली विचारधारा- इस विचारधारा को स्वीकार करने के लिए रेडक्लिफ ब्राउन मुख्य है, इनके अनुसार समाज एक प्रकार्यात्मक एकता है और इस एकता का आधार विभिन्न सामाजिक इकाइयों की प्रकार्यात्मक संबंद्धता है। ब्राउन ने संरचना का निर्माण करने वाले प्रत्येक तत्व के कार्य को महत्व दिया है। उन्होंने बताया है कि जिस प्रकार जैविक क्योंकि प्रत्येक इकाई कार्यात्मक महत्व रखती है, उसी उसी प्रकार सामाजिक सावयव का प्रत्येक ढंग भी महत्वपूर्ण कार्य करता है।

2. व्याप्त स्थाई एवं संगठित संबंधों पर बल देने वाली विचारधारा- सामाजिक संरचना में संबंधों पर बल देने वालों में जींसबर्ग व पारसन्स प्रमुख समाज विज्ञानी हैं। इन समाज शास्त्रियों ने सामाजिक संरचना के निर्माण के लिए समाज के उन विभिन्न इकाइयों को मुख्य माना है जिससे कि समाज का निर्माण होता है। इस विचारधारा को मानने वाले संबंधों के अमूर्त प्रतिमानो पर अधिक जोर देते हैं। 

3. सामाजिक भूमिका के आधार पर बल देने वाली विचारधारा- इस विचारधारा के समर्थकों में नॉडल तथा मिल्स प्रमुख हैं। इन समाज विज्ञानियों का ऐसा मानना है कि सामाजिक संरचना की वास्तविकता को समझने हेतु आवश्यक है कि समाज के सदस्यों को कर्ता के रूप में स्वीकार करना होगा, जो कि एक दूसरे के प्रति वर्ष पर भूमिकाओं का निर्वाह करते हैं। हर भूमिकाओं के द्वारा ही संबंधों का जाल बनता है, यह संबंधों का जाल ही सामाजिक संरचना को प्रकट करता है।

4. सामाजिक संबंधों के आदर्श रूप पर बल देने वाली विचारधारा- समाज विज्ञानियों के एक वर्ग ने व्यक्तियों के मध्य सामाजिक संबंधों के आदर्श रूप पर विशेष जोर दिया है। इस विचारधारा वाले के अनुसार व्यक्तियों के मध्य सामाजिक संबंधों को दो रूपों में रखा जा सकता। एक रूप जो कि धार्मिक भौतिक तथा कानून के रूप में स्पष्ट किया जाता है। दूसरा वह रूप जो कि व्यवहार में वास्तविक रूप में प्रकट होते देखा जाता है। वास्तव में व्यवहार में वास्तविक आचरण प्रथम रूप में भिन्न हो सकता है। वर्तमान समय में जटिल समाजों में वास्तविक व्यवहार के अध्ययन में इतनी अधिक विभिन्न ताएं होती हैं कि सामाजिक साजना का वास्तविक ज्ञान करना अत्यंत मुश्किल हो जाता है। अतः धर्म कानून तथा नैतिकता पर आधारित व्यवहार प्रतिमानों के अध्ययन द्वारा है सामाजिक संरचना को ज्ञात किया जा सकता है।

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