गुप्त साम्राज्य का विस्तार
गुप्त साम्राज्य का विस्तार लगभग (335-375 ई.) तक माना जाता है। चंद्रगुप्त के पश्चात पाटलिपुत्र के सिंहासन पर समुद्रगुप्त बैठा। प्रयाग का स्तंभ लेख (प्रयाग प्रशस्ति) एरन का अभिलेख, नालंदा एवं गया से प्राप्त ताम्रपत्र और उसकी असंख्य मुद्राएं उसके शासन पर महत्वपूर्ण प्रकाश डालती है।
समुद्रगुप्त एक वीर सेना नायक और योद्धा था। भारत के इतिहास में वह अपनी विजय के लिए विख्यात है। वह एक महत्वकांक्षी और साम्राज्यवादी शासक था। उनकी संधि विग्रहिक हरीषेण 'प्रयाग प्रशस्ति' में उनकी विजयों का उल्लेख मिलता है। प्रयाग प्रशस्ति के अनुसार समुद्रगुप्त ने परंपरागत साम्राज्यवादी और विस्तार वादी नीति का अनुसरण किया। इन विजय अभियानों को दो श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है।
1. असुर विजय- इसके अनुसार उसने विभिन्न राज्यों को अपने राज्य में मिलाया।
2. धर्म विजय- धर्म विजय इसमें कहा जा सकता है कि उसने जीते हुए राज्यों को उन्हें वापस लौटा दिया।
समुद्रगुप्त की विजय अभियान का वर्णन करें
समुद्रगुप्त एक महान विजेता थे, जिन्होंने पूरे भारत में अपना परचम लहराया। उनकी जीतों का वर्णन प्रयाग प्रशस्ति में मिलता है।
1. आर्यावर्त के राज्य (उत्तर भारत की विजय)
- आर्यावर्त विंध्य और हिमालय के बीच का क्षेत्र था।
- समुद्रगुप्त ने इसे जीतने के लिए दो चरणों में युद्ध किए।
- पहले चरण में: अच्युत, नागसेन, गणपतिनाथ, और कोतुकल को हराया।
- दूसरे चरण में: रुद्रदेव, मतिलु, नागदत्त, चंद्रवर्मन, नंदी और बलवर्मा को हराया।
2. आटविक राज्य (मध्य भारत की विजय)
- ये राज्य बुंदेलखंड, बघेलखंड और जबलपुर क्षेत्र में थे।
- समुद्रगुप्त को दक्षिण भारत पर आक्रमण करने से पहले इन राज्यों पर विजय पाना जरूरी था।
- प्रयाग प्रशस्ति में इन राज्यों की संख्या नहीं बताई गई, लेकिन खोह अभिलेख के अनुसार इनकी संख्या 18 थी।
3. दक्षिण भारत की विजय
- प्रयाग प्रशस्ति के अनुसार, समुद्रगुप्त ने 12 दक्षिण भारतीय राज्यों को हराया।
- उसने इन राज्यों के शासकों को हराने के बाद उनके राज्य वापस लौटा दिए।
- इसे "राज्यग्रहण मोक्षानुग्रह" कहा गया, क्योंकि उसने जीते हुए राज्यों से मित्रता बनाए रखी।
4. सीमांत राज्य (प्रत्यंत राज्य)
- समुद्रगुप्त को इन राज्यों से युद्ध नहीं करना पड़ा।
- इन राज्यों ने खुद को उसकी शक्ति के आगे समर्पित कर दिया।
- उन्होंने समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार की और कर देने लगे।
- इसे "सर्वकरदान, आज्ञाकरण, प्रणागमन" कहा गया।
5. गणराज्य
- उत्तर और पूर्व में कई स्वतंत्र गणराज्य थे।
- समुद्रगुप्त की शक्ति को देखकर उन्होंने आत्मसमर्पण कर दिया।
- इन राज्यों ने कर चुकाने और आदेश मानने की शर्त पर अधीनता स्वीकार कर ली।
6. विदेशी राज्य
- समुद्रगुप्त की विजयों से प्रभावित होकर कई विदेशी शासकों ने उससे मित्रता कर ली।
- इनमें देवपुत्र शाहनुशाही, शक, मूरुंड, सिंहलद्वीप (श्रीलंका) और अन्य द्वीपों के राजा शामिल थे।
7. साम्राज्य विस्तार
- समुद्रगुप्त ने एक छोटे राज्य से शुरुआत की और एक विशाल साम्राज्य स्थापित किया।
- उसका साम्राज्य आसाम, बंगाल, मगध, पूर्वी पंजाब, मध्य प्रदेश और राजस्थान तक फैल गया।
- दक्षिण भारत के 12 राज्यों ने भी उसकी सर्वोच्चता स्वीकार कर ली।
8. अश्वमेध यज्ञ
- समुद्रगुप्त ने अपनी जीत को साबित करने के लिए अश्वमेध यज्ञ करवाया।
- उसकी स्वर्ण मुद्राओं (सोने के सिक्कों) पर अश्वमेध यज्ञ का अंकन मिलता है।
- यह यज्ञ उसकी सर्वोच्च शक्ति का प्रतीक था।
निष्कर्ष
समुद्रगुप्त ने अपने पराक्रम और कूटनीति से उत्तर और दक्षिण भारत में अपनी विजय पताका फहराई। उसने कई राज्यों को हराया, कुछ को मित्र बना लिया, और अपने साम्राज्य को महान ऊँचाइयों तक पहुँचाया। इसलिए उसे भारत का "नेपोलियन" भी कहा जाता है।
समुद्रगुप्त का मूल्यांकन
समुद्रगुप्त की मुद्राओं पर ‘व्याघ्र पराक्रम प्रक्रमांक’ आदि उसकी वीरता और साहस के प्रतीक हैं। महान विजेता होने के बाद भी वह दयालु एवं कोमल प्रवृत्ति का व्यक्ति था। उसने अपने बाहुबल से विशाल साम्राज्य का निर्माण किया था और देश को राजनीतिक एकता में बांधा था। ‘प्रयाग प्रशस्ति’ उसकी सामरिक प्रतिभा का ज्वलंत उदाहरण है। दक्षिणपथ की विजय को ‘धर्म विजय’ की संज्ञा दी जाती है।
समुद्रगुप्त प्रशासकीय व प्रतिभा संपन्न सम्राट था। वह सुरक्षा सारी शासन तो नहीं था लेकिन लोकहित व धर्म के मार्ग पर चलने वाला शासक था। अन्य धर्मों के प्रति उनकी नीति सहिष्णुता एवं उदारता थी। उनकी स्वर्ण मुद्राओं में उसे वीणा वादन करते हुए दिखाया गया है।
डॉ. आर. पी. मजूमदर के अनुसार समुद्रगुप्त भारतीय इतिहास में एक नवीन युग का संस्थापक है। समुद्रगुप्त की प्रशंसा करते हुए राधामुकुट मुखर्जी ने लिखा है कि “उसकी कृति ऐसे मनुष्य के रूप में बाहरी देशों में फैली जिसने परास्त राजाओं को अपने-अपने राज्य में एक नवीन शांति के युग के सदस्य के रूप में पुनः प्रतिष्ठित किया।”
और उसके विषय में प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. बी. स्मिथ ने समुद्रगुप्त की दिग्विजय की तुलना नेपोलियन से करते हुए उसे भारतीय नेपोलियन कहा है। समुद्रगुप्त और नेपोलियन में कुछ समानता है लेकिन समुद्रगुप्त नेपोलियन से श्रेष्ठ विजेता, श्रेष्ठ शासक, श्रेष्ठ सेनानायक था।
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