वितरण का सीमांत उत्पादकता सिद्धांत
वितरण का सबसे पुराना महत्व यह माना जाता है कि कि इसे सीमांत उत्पादकता का सिद्धांत कहा गया है इस सिद्धांत के अंतर्गत प्रति पादन 1826 में जर्मन अर्थशास्त्र टी.एच. वान.थूनेन ने किया था जिससे इसका विकास अधिक माना गया था और अर्थशास्त्रीय कला मेजर तथा सोहम बे्रक ने फ्रेंच अर्थशास्त्री अंग्रेज अर्थशास्त्री विकास तथा अमेरिकन अर्थशास्त्री जे.वी. क्लार्क इन सब ने सीमांत उत्पादकता सिद्धांत के बारे में कार्य किया है की कीमत सिद्धांत के रूप में विकसित कमाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है इस सिद्धांत के अनुसार यह भी माना जाता है कि पूर्ण प्रतियोगिता की अवस्था में उत्पत्ति के साधनों की सेवाओं का मूल्य उनकी सीमांत उत्पादकता के बराबर निर्धारित की जाती है।
साधनों की मांग इसलिए की जाती थी क्योंकि उनमें वस्तु एवं सेवाओं के उत्पादन उपयोग करने योग्य नहीं थे इसलिए वस्तुओं का सेवाओं के उत्पादन करने की योग्यता को ही समाप्त कर दिया गया उत्पादकता भी इसे कहा जाता है उत्पादन के साधन की मांग उसकी उत्पादकता के लिए किए जाते हैं उत्पादकता इससे ज्ञात करने के लिए आवश्यक है क्योंकि अन्य साधनों को स्थिर रखकर उस साधन की एक अतिरिक्त इकाई का प्रयोग किया जाए इसके फलस्वरूप कुल उत्पादन में जो वृद्धि होगी वह मुख्य रूप से बदल जाएगी इसलिए साधन की अतिरिक्त इकाई के कारण कुल उत्पादन में होने वाली इस विधि को ही उस साधन की सीमांत उत्पादकता कहा गया है पूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति में जब साधनों को पूर्ण रोजगार प्राप्त होता है तो उनकी पूर्ण स्थिति हो जाती थी इसलिए उसकी कीमत सीमांत उत्पादकता द्वारा निर्धारित की जाती है।
सीमांत उत्पादकता सिद्धांत की मान्यताएं
सीमांत उत्पादकता सिद्धांत की मान्यताएं निम्न प्रकार से देखी जा सकती है—
1. साधन बाजार में पूर्ण प्रतियोगिता पाई जाती है।
2. साधन बाजार की सभी इकाइयों पूर्णता एक समान होती है।
3. क्रमागत उत्पत्ति ह्रास नियम लागू किया जाता है।
4. अन्य साधनों को स्थिर वे एक साधन को परिवर्तन करना संभव होता है।
5. बाजार में पूर्ण रोजगार विद्यमान होता है।
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