संस्कृतिक विलम्बना किसे कहते हैं | What is Cultural Delay
भौतिक संस्कृति का आगे बढ़ जाना और अभौतिक का पीछे रह जाना ही “सांस्कृतिक विलम्बना” कहलाता है।
सांस्कृतिक विलम्बना की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए | The Concept of Cultural Latency
ऑगबर्न लिखते हैं कि “आधुनिक संस्कृति के सभी भागों में समान गति से परिवर्तन नहीं हो रहे हैं। कुछ भागों में दूसरों की अपेक्षा अधिक तीव्र गति से परिवर्तन हो रहे हैं। क्योंकि संस्कृति के सभी भाग एक दूसरे पर निर्भर और एक दूसरे से संबंधित हैं। संस्कृति के एक भाग में होने वाले तीव्र परिवर्तन से दूसरे भागों में भी नियोजन की आवश्यकता होती है।” इस प्रकार स्पष्ट है कि भौतिक संस्कृति का भौतिक संस्कृति की तुलना में तुरंत ही परिवर्तित हो जाती है। इससे एक संस्कृति आगे बढ़ जाती है और दूसरी पीछे रह जाती है। उदाहरण के रूप में, वर्तमान समय में मशीनों एवं कलपुर्जों का विकास तो बहुत हुआ, लेकिन उसी गति से अभौतिक संस्कृति के तत्व जैसे धर्म, साहित्य, दर्शन और कला का विकास रुक गया। इसके परिणामस्वरुप भौतिक संस्कृति पिछड़ गई है।
सांस्कृतिक पिछड़ेपन को स्पष्ट करने के लिए ऑगबर्न ने कई उदाहरण दिए हैं, जैसे - वर्तमान समय वैज्ञानिक प्रगति के कारण मशीनीकरण एवं औद्योगिकरण में प्रगति हुई है, अनेक नए व्यवसाय जन्मे हैं किंतु उनकी तुलना में श्रम कल्याण के नियम एवं संस्था का विकास धीमी गति से हुआ है, इसी प्रकार से सड़क यातायात तो बढ़ा है, लेकिन सड़क के नियम बाद में बने, कृषि करने के नवीन यंत्रों एवं साधनों का विकास तो हुआ है, पर भूमि सुधार के कानून तो देर से बने हैं, इस प्रकार भौतिक और अभौतिक संस्कृति में असंतुलन पैदा हो गया है, और उनमें मेल मिलाप नहीं हो पाया है।
इसके संबंध में लम्ले लिखते हैं कि “ऐसा मालूम पड़ता है कि बहुत से पैदल चलने वाले सेना की एक टुकड़ी कदम मिलाकर नहीं चल रही हों।"
सांस्कृतिक विलम्बना के कारण | Saanskrtik Vilambana ke Karan
1. परिवर्तन के लिए लोगों के विचारों में भिन्नता— परिवर्तन के प्रति लोगों की धारणा में भी अंतर पाया जाता है। कुछ लोग परिवर्तनों का उत्साह पूर्वक स्वागत करते हैं, और उनके प्रति उदासीन होते हैं, तो कुछ उनका विरोध भी करते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि सांस्कृति मैं असंतुलन पैदा हो जाता है।
2. रूढ़िवादिता— लगभग सभी समाजों में रूढ़ियों के प्रति लगाव पाया जाता है। नए वस्तुओं को वह चाहे तुरंत ही स्वीकार कर ले, लेकिन परंपरा से चले आ रहे विश्वासों रीति-रिवाजों, व्यवहारों, विचारों, मूल्यों और आदर्शों में नवीन परिवर्तनों को बहुत कम ही स्वीकार किया जाता है।
3. नवीनता के प्रति भय— मानव की यह प्रवृत्ति है कि वह नवीनता को बिल्कुल स्वीकार नहीं करता, उसे शंका की दृष्टि से देखता है। जब तक समाज के प्रति व्यक्तियों द्वारा उनका परीक्षण कर सिद्ध नहीं कर दिया जाता तब तक सम्मानीय व्यक्ति परिवर्तन एवं नवीनता के पति उपेक्षा ही करता है।
4. नवीन विचारों की जांच में कठिनाई— संस्कृतिक विलम्बना का एक कारण यह भी है कि समाज में आने वाले नवीन विचारों की परीक्षा कहां और कैसे की जाए प्राचीन विचारों की उपयोगिता से तो सभी व्यक्ति परिचित होते हैं, लेकिन नवीन विचार भी उनके लिए लाभदायक सिद्ध होंगे यह जानना कठिन होता है।
5. निहित स्वार्थ— स्वार्थों के कारण भी कई बार परिवर्तन का विरोध किया जाता है। सामान तो ने भारत में प्रजातंत्र का और पूंजीपतियों ने समाजवाद का विरोध अपने निहित स्वार्थों के कारण ही किया है। मजदूर लोग ऐसी मशीनों का विरोध करते हैं जिनमें मजदूर को लाभ नहीं होती है। क्योंकि इससे उनमें बेकारी पनपती है, इस प्रकार प्रत्येक वर्ग के अपने स्वार्थ हैं जिनकी रक्षा के लिए वे सदा भौतिक और अभौतिक परिवर्तनों का विरोध करते हैं।
6. अतीत के प्रति निष्ठा— भौतिक संस्कृति की तुलना में भौतिकी संस्कृति में मंद गति से परिवर्तन आने का कारण लोगों की अतीत की विचारों एवं परंपराओं के प्रति निष्ठा भी है। वह यह सोचते हैं कि हमारे पूर्वजों की देन है, इन्हें मानना हमारा नैतिक कर्तव्य है और पूर्वजों के प्रति निष्ठा व्यक्त करना। सदियों से प्रचलित होने के कारण उनमें पीढ़ियों का अनुभव जुड़ा हुआ है और समाज में उनकी उपयोगिता सिद्ध हो चुकी है।
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भाई बहुत बढ़िया
ReplyDeleteFree blogger pr bhi aap pesa kamaa rhe ho......