बलबन की रक्त लौह नीति एवं बलबन का मूल्यांकन

 बलबन की रक्त लौह नीति क्या थी

 तो  हेल्लो स्टूडेंट्स आज हम बलबन की रक्त लौह नीति क्या थी के बारे में चर्चा करेंगे। इसके पिछले पोस्ट में हमने बलबन की शासन व्यवस्थाके बारे में चर्चा की थी, अगर इसके बारे में आपने नहीं पढ़ा तो इस लिंक पर जाकर पढ़ सकते हैं

1. सुल्तान के पद की प्रतिष्ठा की स्थापना-

     सर्वप्रथम बलबन का ध्यान सुल्तान के पद को प्राप्त करने की ओर अग्रसर हुआ। इसके लिए उसने दैवीय सिद्धांत तथा कठोर नियंत्रण की नीति अपनाई। वह सुल्तान के पद को ईश्वर प्रदत समझता था और राजा की निरंकुशता में उसका दृढ़ विश्वास था उसने स्वयं कहा था- 

"राज हृदय ईश्वरीय कृपा का विशेष भंडार है और इस दृष्टि से कोई भी राजा की समानता का अधिकारी नहीं है।"

    उसने अपने दरबार की प्रतिष्ठा में बड़ी वृद्धि  की। उसका दरबार एशिया के प्रसिद्ध दरबारों में गिना जाता था। उसने हमेशा उच्च कुल के व्यक्तियों को विभिन्न पदों पर नियुक्त किया और निम्न श्रेणी के व्यक्तियों को कभी मुंह नहीं लगाया उसने स्वयं मध्य पान करना त्याग दिया तथा पदाधिकारियों और दरबारियों के लिए भी मद्यपान निषेध घोषित कर दिया। बलबन बड़ा अनुशासन प्रिय तथा न्याय प्रिय शासक था। वह कठोर दंड देता था किंतु उसमें दया की भावना भी पर्याप्त मात्रा में विद्यमान थी उसके इन कार्यों ने सुल्तान के पद को गौरवान्वित किया और सभी लोग उसको आदर तथा श्रद्धा की दृष्टि से देखने लगे।


2. चालीस गुलामों के दल का विनाश-

      इस दल का निर्माण इल्तुतमिश ने अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया था। उसकी मृत्यु के पश्चात उसके अयोग्य उत्तराधिकारी ओं के शासनकाल में इसकी शक्ति का और अधिक विस्तार हुआ। बलबन ने राजसिंहासन पर बैठते ही इनका अंत करने की योजना बनाई और साधारण अपराधों के लिए उन्हें कठोरतम दंड दिए। इससे जनता की दृष्टि में उनकी प्रतिष्ठा समाप्त हो गई। 


3. गुप्तचर विभाग की स्थापना और सैनिक संगठन-

        बलबन ने दृढ़ शासन की स्थापना के लिए विशेष प्रयत्न किए। वह स्वयं समस्त शक्ति का स्रोत था और अपने आदेशों का दृढ़ता से पालन करवाता था। गुप्तचर विभाग की ओर बलबन विशेष ध्यान देता था उसने अपने गुप्तचरों का जाल सा बिछा दिया था जो सीधे सुल्तान के नियंत्रण में थे। बलबन की शक्ति का आधार सैनिक था और उसने एक सुसंगठित तथा विशाल सेना का निर्माण किया सैनिकों को अनुशासन पालन करने का आदेश दिया पालन ना करने वालों को कठोर दंड दिया जाता था।

बलबन का मूल्यांकन कीजिए

बलबन का मूल्यांकन इस तरह से किया जा सकता है -

      बलबन अपने प्रिय तथा होनहार पुत्र का दु:खद समाचार सहन नहीं कर सका और 1287 ई.  में उसकी मृत्यु हो गई। उसने भारत पर 20 वर्ष प्रधानमंत्री और 20 वर्ष सुल्तान के रूप में शासन किया। इस 40 वर्षों में उसने साम्राज्य की सेवा के साथ ही सुल्तान की मन प्रतिष्ठा में भी बड़ी वृद्धि की।

      वह एक महान योद्धा राजा तथा राजनीतिज्ञ था। जिसने नव स्थापित मुस्लिम राज्य की रक्षा की। बलबन भारत के मध्यकालीन इतिहास का सदैव एक महान चरित्र रहेगा। इन्हीं सभी कारणों से वह भारत में तुर्की साम्राज्य का संरक्षक तथा वास्तविक संस्थापक कहा जाता है। उसकी योग्यता तथा प्रतिभा का यह ज्वलंत प्रमाण है कि उसको दास के पद से प्रधानमंत्री तथा बाद में सुल्तान पद पर आसीन होने में सफलता प्राप्त हुई।

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