जैन धर्म की भारतीय संस्कृति को देन (contribution of Jainism to Indian culture)

  जैन धर्म के सबसे महत्वपूर्ण विचार और भारतीय सोच पर इसके प्रभाव की व्याख्या करें

जैन धर्म का समाज पर प्रभाव

       जैन धर्म मुख्यतः भारत की सीमाओं में ही सीमित रहा था। जैन धर्म को प्रमुख धर्म बनने का अवसर भी उसे कभी प्राप्त नहीं हुआ, किंतु जैन धर्म का भारतीय समाज पर जैन धर्म का विभिन पहलुओ पर प्रभाव पड़ा। 

jain dharm ki bhartiy sanskriti ko den
Jain dharam ki bharty sanskriti ko den


भारतीय समाज पर जैन धर्म का क्या प्रभाव पड़ा

(1) दर्शन के क्षेत्र में योगदान (Contribution to the field of philosophy )— 

        जैन धर्म ने भारतीय दर्शन के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जैन धर्म पर उपनिषदों का प्रभाव था किंतु जैन धर्म ने अनेक नवीन सिद्धांतों का प्रतिपादन किया जो निसंदेह है मौलिक थे। उदाहरण:- जैन धर्म के स्यादवाद को लिया जा सकता है।स्यादवाद एक उदार एवं सामंजस्य पूर्ण दृष्टिकोण है।बात का अर्थ है कि विभिन्न दृष्टिकोण से देखने पर सत्य के विभिन्न रूप देखे जा सकते हैं, कोई भी विचार सत्य के एकाकी रूप को ही व्यक्त करता है।लोग विशिष्ट परिस्थिति में सत्य के कुछ रूप को देखकर ही उसे संपूर्ण सत्य को समझने के लिए सत्य के प्रत्येक रूपवा पहलू को समझना परम आवश्यक है। स्यादवाद के अतिरिक्त भी अनेक मौलिक सिद्धांत को जैन धर्म में भर्ती संस्कृति को प्रदान किया इस संदर्भ में अनेकांतवाद सिद्धांत उल्लेखनीय है। 


(2) अहिंसा —

          जैन धर्म का अहिंसा का सिद्धांत यद्यपि कोई मौलिक सिद्धांत नहीं था फिर भी उल्लेखनीय तथ्य यह है कि अहिंसा का प्रचार जितना जैन धर्म के द्वारा किया गया उतना तो किसी अन्य धर्म के कारण नहीं हुआ। जैन धर्म में आंसर पर अत्यधिक बल दिया था।महावीर ने पशु पक्षी तथा वनस्पति तक की हत्या ना करने का अनुरोध अपने अनुयायियों से किया था,क्योंकि उनका विचार था कि वनस्पति में भी जीव होता है जैन धर्म में अहिंसा के सिद्धांत व उनके प्रचार के कारण वैदिक धर्म के अंतर्गत होने वाले यज्ञ में भी बलि प्रथा धीरे-धीरे कम होने लगी। जैन धर्म ने अहिंसा के प्रचार में अपना व्यापक सहयोग दिया। 


(3) राजनीतिक प्रभाव(Political influence) —

       जैन धर्म के अहिंसा के सिद्धांत के प्रचार ने तत्कालीन राजनीतिक स्थिति को भी प्रभावित किया।जैन धर्म के अनुयाई शासकों द्वारा यथासंभव शांतिप्रिय नीति का पालन करने का प्रयास किया जाना इस तथ्य को प्रमाणित करता है।इसके अतिरिक्त जैन धर्म से तत्कालीन राजनीतिक स्थिति के विषय में अमूल्य जानकारी उपलब्ध होती है।


(4) सामाजिक देन(Social gift) —

         जैन धर्म की सामाजिक क्षेत्र में महत्वपूर्ण दिन है।जैन संघ और जैन धर्म के आश्रय देने वाले राजाओं ने समाज के निर्धन वर्ग के लिए अनेक औषधालय विश्रामालय व पाठशालाओं का निर्माण कराया,जहां निशुल्क दवाई ठहरने की सुविधा व शिक्षा की व्यवस्था उपलब्ध कराई थी। इससे समाज के अन्य वर्गों में भी निर्धनता के प्रति दया भाव व दान देने की भावना जागृत हुई।

1. स्त्रियों की स्थिति  (Status of womens)— जैन धर्म में स्त्रियों की स्थिति सुधारने के लिए भी प्रयास किया तथा उनके लिए एक विशेष स्थान दिया गया। इसी उद्देश्य से उन्हें जैन संघ में रहने वाले शिक्षाओं का पालन कर मोक्ष प्राप्त करने का भी अधिकार जैन धर्म के द्वारा दिया गया था। 

2. जाति प्रथा (Caste system)— महावीर के समय में जाति प्रथा प्रचलित थी तथा समाज में ऊंच-नीच व छुआछूत की भावनाएं थे। इस कारण निम्न वर्ग की स्थिति सोचनीय थी जैन धर्म ने ना केवल जाति प्रथा का विरोध किया वरन सभी व्यक्तियों को एक समान बताया। जैन धर्म के द्वारा जाति प्रथा का विरोध करने के कारण ब्राह्मणों की शक्ति का ह्रास हुआ व सामाजिक समानता की भावना प्रबल होने लगी, जिससे शूद्रों की स्थिति में सुधार हुआ।

3. दासों की स्थिति(Status of slaves) — प्रो. डी. एन. झा जी का कहना है कि जैन धर्म के कारण दासों की स्थिति में भी उल्लेखनीय सुधार हुआ एक जैन ग्रंथ में वर्णन है कि मालिकों को अपने दास, दासियों, कर्मकारों और कर्मचारियों का अच्छी तरह से भरण-पोषण करना चाहिए। इस प्रकार की शिक्षाओं से समाज में शूद्रों व दासों के प्रति उदारता एवं सहृदयता के भाव अंकुरित हुए इसका सीधा प्रभाव उनकी सामाजिक स्थिति पर पड़ा।


(5) धार्मिक देन (Religious gift) — 

   जैन धर्म ने ब्राह्मण धर्म की बुराइयों की आलोचना की थी। ब्राह्मणों को भी उनके धर्म में विद्यमान कुरीतियों का ज्ञान हुआ।अपने धर्म के अस्तित्व को बनाए रखने के लिए यह आवश्यक हो गया कि वे उसमें सुधार करें। अतः जैन धर्म के कारण ब्रह्मांड धर्मपुर की तुलना में अधिक सरल व आडम्बरहित हो गया।  


(6) साहित्यिक देन (literary gift) —

        जैन विद्वानों के द्वारा लोक भाषा में साहित्य की रचना की गई अतः लोक भाषा प्राकृतिक को समृद्ध बनाने में जैन धर्म का विशेष योगदान है जैन धर्म के मूल धार्मिक ग्रंथों में (12 अंग, 11 उपांग , 10 पैन्न, 5 मूलसुत्त, 1 नंदीसूत् , 7 छयसुत्त) भी प्राकृत भाषा में ही रचित हैं । कुछ धार्मिक ग्रंथों की रचना आप ब्रांच भाषा में हुई। दक्षिणी भारत के सहित पर भी जैन धर्म का प्रभाव है। दक्षिण भारत में जैन धर्म के प्रचार हेतु कन्नड़ तमिल, तेलुगू आदि भाषाओं में भी जैन ग्रंथों की रचना की गई।

                 जैन ग्रंथों में व्याकरण का व्यवहार गणित आदि पर भी अनेक ग्रंथों की रचना की।गुप्त काल में संस्कृत भाषा के अधिक लोकप्रिय होने के कारण जैन विद्वानों ने अपने धर्म ग्रंथों की संस्कृत में भी रचना की।11वीं शताब्दी में हेमचंद्र सूरी नामक जैन विद्वान ने संस्कृत और प्राकृत दोनों ही भाषाओं में अपने महत्वपूर्ण पदों का सृजन किया। प्रमुख जैन साहित्यकारों में हरीभद्र, सिद्धसेन आदि के नाम भी उल्लेखनीय है, किंतु सर्वोच्च स्थान हेमचंद्र सूरी जी का है। 

                 जैन धर्म की साहित्यिक देन के संदर्भ में 'डॉक्टर हीरालाल जैन' का कथन उल्लेखनीय है उसके अनुसार "जैनियों ने देश के भाषा विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है संस्कृत तथा पाली भाषा का ब्राह्मण व बौद्धों द्वारा पवित्र रचना व शिक्षाओं की रचना हेतु प्रयोग किया गया किंतु जैनियों ने विभिन्न स्थानों व विभिन्न समायो में लोक भाषा का प्रयोग ज्ञान को सुरक्षित रखने व अपने धर्म के प्रसार के लिए किया उन्होंने ही पहली बार अपने क्षेत्रीय भाषा को साहित्यिक रूप में प्रदान किया।"



(7) कला के क्षेत्र में देन (In the field of art) —

         जिस प्रकार जैन सरकारों ने अपनी रचनाओं के द्वारा भारतीय साहित्य को समृद्ध बनाया, ठीक उसी प्रकार जैन कलाकारों ने अपनी कलाकृतियों के द्वारा भारतीय कला के कोष में असीमित वृद्धि की जैन धर्म के अनुयायियों ने अपने धर्म के प्रचार एवं प्रसार हेतु पूज्य तीर्थकारों की स्मृति को बनाए रखने के उद्देश्य हेतु कलात्मक मंदिरों, स्तूपों, मठों, रेलिंग, प्रवेश द्वार, स्तंभ, गुफा व मूर्तियों का निर्माण कराया। द्वितीय सभी में जैन धर्म के प्रचार हेतु हाथी गुफा नामक गुफाओं में अनेक कलाकृतियों का निर्माण किया गया। इसके अतिरिक्त राजगृही, पावापुरी , पार्श्वनाथ, पर्वत, सौराष्ट्र, राजस्थान और मध्य भारत में अनेक जैन मंदिर में मूर्तियों का निर्माण किया गया, जो कला की दृष्टि से अंकुरनीय हैं। राजस्थान में आबू पर्वत पर तथा बुंदेलखंड खजुराहो ने 11वीं शताब्दी में निर्मित मंदिर वस्तु कला एवं मूर्तिकला के अद्भुत नमूने हैं। 

      दक्षिण भारत में श्रवणबेलगोला के निकट 70 फुट ऊंची गोमतेश्वर प्रतिमा व बड़वानी में 84 फुट ऊंची जैन तीर्थकर की प्रतिमा दर्शनीय हैं। इन प्रतिमाओं का निर्माण विशाल चट्टानों को काटकर किया गया है इसके अतिरिक्त जैन धर्मावलंबियों के द्वारा धर्म स्थलों को भी निर्माण कराया गया, जिसका उदाहरण चित्तौड़ के दुर्ग में निर्मित स्तंभ है। 

       जैन कला का 11वीं व 12वीं सदी में अत्यधिक विकास हुआ था। जैन कलाकारों का चित्र कला के क्षेत्र में भी योगदान है। जैन चित्रकला में तथा अन्य चमकीले रंगों का प्रयोग किया गया है। जैन चित्रकला के संदर्भ में उल्लेखनीय तथ्य यह है कि यह चित्रकला प्रमुखता या हस्तलिखित पुस्तकों पर की गई है। जैन तीर्थ कारों मुनियों के चित्र भी इन पुस्तकों पर चित्रित मिलते हैं | 



!!! आशा करता हूं दोस्तों आज का यह हमारा टॉपिक आपके लिए लाभायक हो______


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