पूॅंजी संरचना का अर्थ, महत्व, तत्व

पूंजी संरचना का अर्थ

स्वामित्व कोष और ऋणगत कोष के संयोजन को पूंजी संरचना कहते हैं। इन दोनों के कोषों से पूंजी संरचना का निर्माण होता है।

आइए हम इसे विस्तार से समझने का प्रयास करते हैं,

तो स्वामित्व कोष का अर्थ होता है जो व्यक्ति स्वयं अपने व्यवसाय में निवेश करता है और अपने व्यवसाय को लाभ की ओर अग्रसर करता है उसे स्वामित्व कोष कहते हैं।

और ऋणगत कोष का अर्थ होता है इसमें व्यक्ति अपने व्यवसाय का संचालन करने के लिए दूसरों से उधार लेकर अपने व्यवसाय को विकास की ओर ले जाता है उसे ऋणगत कोष कहते हैं।

अब आपको इतना समझ में आ गया तो आपके मन में यह सवाल होगा कि पूंजी संरचना की आवश्यकता क्यों होती है? तो इसे भी जान लेते हैं।

पूंजी संरचना की आवश्यकता क्यों होती है

व्यवसाय के उचित संचालन और उचित विकास के लिए पूंजी संरचना की आवश्यकता पड़ती है।

पूंजी संरचना का महत्व

पूंजी संरचना के स्रोतों को दो भागों में बांटा जा सकता है जैसे प्रथम, स्वामी पूंजी जिसमें समस्त अंश पूंजी, पूर्वाधिकार अंश पूंजी एवं संचित लाभ को शामिल किया जाता है। दूसरा, ऋण पूंजी जिसमें ऋण पात्रों को सम्मिलित किया जाता है। पूंजी के दोनों भागों के पारस्परिक अनुपात का वित्तीय प्रबंध में विशेष महत्व है। वित्तीय प्रबंध के द्वितीय कार्य 'वित्त व्यवस्था संबंधी निर्णय को ही पूंजी संरचना भी कहते हैं।' इस निर्णय के अंतर्गत यह निर्धारित किया जाता है कि व्यवसाय की पूंजी में स्वामी पूंजी और ऋण पूंजी का क्या अनुपात होना चाहिए। इनके आधार पर विशेष चिंतन की आवश्यकता इसलिए है क्योंकि इससे कंपनी की पूंजी और मूल्य प्रभावित होता है।

जिनका सीधा प्रभाव कंपनी के मूल्य पर पड़ता है। अतः यह आवश्यक है कि पूंजी के दोनों स्रोतों में उचित संतुलन स्थापित किया जाए। स्वामी पूंजी और ऋण पूंजी के संतुलन अनुपात से अनुकूलतम पूंजी ढांचे का निर्माण होता है। इससे कंपनी की पूंजी लागत का कुल मूल्य अधिकतम होता है।

पूंजी संरचना के तत्व

किसी व्यवसाय को पूंजी संरचना का निर्माण करने के लिए कई प्रकार के निधियों से संबंधित अनुपात का निर्धारण सामिल होता है। जैसे कोई कंपनी रेनो की मात्रा को बढ़ाने की योजना बना रही है तो उस कंपनी के ऋणों की मात्रा अधिक होने के कारण इस कंपनी से जो भी अन्य कंपनी ऋण लेना चाहेगी उसे ब्याज सहित भुगतान करने के लिए पर्याप्त मात्रा में रोकड़ की व्यवस्था कर लेनी चाहिए।

इसी प्रकार से पूंजी संरचना के महत्वपूर्ण तत्व इस प्रकार से हैं_

1. रोकड़ प्रवाह स्थिति- पैसों के लेन-देन को ही हम रोकड़ प्रवाह कहते हैं, किसी से पैसे लेने से पूर्व हमें रोकड़ प्रवाह को ध्यान रखना चाहिए। क्योंकि हम जब किसी से भी पैसे ऋण के रूप में लेंगे तो उसे चुकाने के लिए ब्याज के साथ देना होगा। इसके लिए हमारे पास पर्याप्त मात्रा में पैसों का होना भी अनिवार्य है। और कंपनी किन-किन कार्यों के लिए पैसों का भुगतान करती है, उसका भी ध्यान देना चाहिए, जैसे_

  • सामान्य व्यवसायिक संचालन के लिए
  • स्थाई संपत्तियों के निवेश के लिए
  • ऋण सेवा वचनबद्धता का परिपालन करने के लिए, और फिर से भुगतान के लिए भी व्यवस्था करनी चाहिए।

2. ब्याज आवरण अनुपात- ब्याज आवरण अनुपात का अर्थ है कि कंपनी का ब्याज और कर काटने से पहले लाभ की मात्रा ब्याज से कितने गुना ज्यादा है अर्थात ब्याज की आभार को भुगतान करने के लिए लाभ की मात्रा कितना अधिक है इसकी गणना इस प्रकार से की जा सकती है।

                                 ई. बी. आई. टी.

ब्याज का आवरण अनुपात= –––––

                                         ब्याज

यहां पर आय, ब्याज और कर को काटने से पहले यह अनुपात जितना अधिक होगा कंपनी की आर्थिक दशा ब्याज का भुगतान करने के लिए उतना ही अच्छा माना जाएगा। अर्थात कंपनी ब्याज का भुगतान आसानी से कर पाएगा।

3. निवेश पर आय- कंपनी की निवेश पर आय बहुत अधिक दर की है तो प्रति अंश आय को बढ़ाने के लिए कंपनी पर व्यापार के उपयोग का चुनाव कर सकती है। अतः ऐसे में ऋण उपयोग की योग्यता उच्च श्रेणी की मानी जाती है।

4. ऋण की लागत- किसी कंपनी के द्वारा कम ब्याज की दर पर ऋण लेना उसकी ऊंची दर से ऋण विनियोजन क्षमता को प्रदर्शित करता है। यदि कम दर की ब्याज पर ऋण लिया जा सकता है तो अधिक मात्रा में ऋण का उपयोग भी किया जा सकता है।

5. प्रवर्तन लागत- कंपनी यदि अपने स्रोतों में कुछ बदलाव या वृद्धि करना चाहे तो इसके लिए उसे कुछ खर्च भी करने पड़ते हैं, जब अंशो तथा ऋण पात्रों का जनता में निर्गमन किया जाता है तो थोड़ा बहुत भुगतान करने की आवश्यकता भी होती है।

6. जोखिम का ध्यान- किसी व्यवसाय में ऋणों की मात्रा बहुत अधिक है तो जोखिम भी बहुत ही ज्यादा होती है। अर्थात कंपनी ने जो ऋण लिया है ऋण की मात्रा अधिक होने के कारण उसे चुका नहीं पाएगी, जिन्होंने इस व्यवसाय पर निवेश किया है उन्हें लाभांश भी नहीं दे पाएगी और जिनसे ऋण लिया है उन्हें भी चुका नहीं पाएगी।

7. लचीलापन- यदि कोई व्यवसाय अपनी ऋण का पूरा उपयोग करती है तो यह और अधिक ऋण के बोझ को नहीं उठा पाती अर्थात और ऋण नहीं ले सकती है। क्योंकि इनके ऊपर पहले से ही ऋण का बोझ है। अतः लचीलापन बनाए रखने के लिए इसे अदृश्य परिस्थितियों से सावधान रहते हुए अपनी ऋण लेने की क्षमता को बनाए रखना चाहिए।

8. नियामक संरचना- नियामक ढांचा का अर्थ होता है कि कंपनी पैसे तो प्राप्त कर सकती है लेकिन सरकार में जो नियम और कानून बनाए हैं उसके अनुसार ही प्राप्त कर सकती है।

उदाहरण के लिए अंशो या ऋण पत्रों का निर्गमन सेबी के नियमों के अंतर्गत होता है।

9. अन्य कंपनियों की पूंजी संरचना- पूंजी संरचना में हमें अन्य कंपनियों की पूंजी संरचना भी प्रभावित कर सकती है जैसे अन्य कंपनियां किस तरीके से अपने कंपनी का संचालन कर रही है उसे देख कर भी हम अपनी कंपनी में नियम और कानून लागू कर सकते हैं।

पूंजी संरचना के सिद्धांत

1. लागत का सिद्धांत- इस सिद्धांत के अनुसार वांछित राशि को इस  प्रकार से एकत्रित किया जाए ताकि विद प्राप्त करने की लागत न्यूनतम रहे। साधारणतः रिंकू जी प्राप्त करने की लागत कम और अंश पूंजी की लागत अधिक होती है। इसका कारण यह है कि ऋण पूंजी पर ब्याज की दर अधिक होती है और अंश पूंजी पर दिए जाने वाले लाभांश की दर कम होती है। इस सिद्धांत के अनुसार वित्त प्राप्ति का लागत न्यूनतम रखने के लिए हमें ऋण पूंजी से ही आवश्यक राशि प्राप्त करनी चाहिए।

2. जोखिम का सिद्धांत- इस सिद्धांत के अनुसार ऋण पूंजी और अंश पूंजी का ऐसा मिश्रण होना चाहिए जिससे कंपनी के सामने अधिक जोखिम उत्पन्न ना हो। ऋण पूंजी पर कंपनी को एक निश्चित दर से ब्याज का भुगतान करना पड़ता है। चाहे उस कंपनी को लाभ हो रहा हो या हानि हो रहा हो। लेकिन उसे ब्याज के साथ भुगतान करना ही पड़ता है। भुगतान न करने पर ऋण देने वाला कंपनी के खिलाफ कोर्ट में केस दर्ज कर सकता है। अतः ऋण पूंजी का अत्यधिक प्रयोग करने से कंपनी के जोखिम में वृद्धि होती है। अतः सोच समझकर ऋण लेना चाहिए।

3. नियंत्रण का सिद्धांत- इस सिद्धांत के अनुसार पूंजी ढांचे का निर्माण करते समय यह बात ध्यान में रखना चाहिए कि अंश धारी अर्थात स्वामियों के नियंत्रण प्रभावित ना हो। यदि धन एकत्रित करने के लिए अंशों को जारी किया जाता है, तो इससे कंपनी के अनुसार आर्यों की वृद्धि होती है जिसका सीधा प्रभाव अंश धारियों के नियंत्रण पर पड़ता है अर्थात जब कंपनी पर नियंत्रण करने वाले स्वामियों की संख्या में वृद्धि हो जाती है तो ऐसी स्थिति में वर्तमान अंश धारी को कभी भी पसंद नहीं करते, दूसरी ओर, धन ऋण पूंजी के द्वारा एकत्रित करने पर कंपनी के नियंत्रण पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता क्योंकि ऋण दाताओं का कंपनी के नियंत्रण में कोई हस्तक्षेप नहीं होता। ‌अतः यह सिद्धांत का पालन करने के लिए ऋण पूंजी बहुत ही अच्छा विकल्प है।

4. लोचशीलता का सिद्धांत- इस सिद्धांत के अनुसार पूंजी संरचना में पर्याप्त लोचशीलता होनी चाहिए, यह लो शीलता का अभिप्राय इस बात से है कि आवश्यकता पड़ने पर व्यवसाय में पूंजी की राशि को आसानी से कम या अधिक किया जा सकता है। व्यवसाय में पूंजी को कम करने के लिए केवल ऋण पूंजी की सहायता से संभव है।

5. समय का सिद्धांत- इस सिद्धांत के अनुसार वित्त व्यवस्था करते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि व्यवसाय में मंदी चल रही हो या बढ़ोतरी हो रही हो इसे आर्थिक समृद्धि का समय माना जाता है अर्थात इसमें लाभ अधिक होते हैं। अधिक लाभों से प्रभावित होकर निवेशक अंश पूंजी को अधिक पसंद करते हैं। इसके विपरीत मंदी काल में व्यवसाय में हानि का दौर होता है।

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